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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १२. माया का अंग)
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*ब्रह्मा विष्णु महेश लौं, सुर नर उरझाया ।*
*विष का अमृत नाम धर, सब किनहूँ खाया ॥१२४॥*
विषतुल्य नारी को अमृत समान मानकर ब्रह्मा विष्णु महेश देवता मानव आदि सभी प्राणी उस रस का पान करते हैं । लिखा है कि- शरीर कूबड़ा हो गया और लकड़ी के सहारे चलता है, दांत उखड़ गये, दोनों कानों से सुनाई नहीं देता, सिर सफेद हो गया । आंख से दीखता नहीं, फिर भी यह निर्लज्ज मन विषयों की इच्छा करता रहता है ।
भागवत में- एक बार अपनी पुत्री सरस्वती को देखकर ब्रह्माजी भी उसके रूप लावण्य से मोहित हो गये और उसके मृगीरुप धारण करके भागने पर भी उसके पीछे निर्लज्जता पूर्वक मृगरूप होकर दौड़ने लगे ।
महाभारत में- परलोक में भाई, बन्धु, धन, कुलीनता, वेदाध्ययन, मंत्र, बलवीर्य आदि कोई भी दुःख से रक्षा करने में समर्थ नहीं है । किन्तु एक शील ही रक्षा कर सकता है ।
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*॥ विषया अतृप्ति ॥*
*जीव गहिला जीव बावला, जीव दीवाना होइ ।*
*दादू अमृत छाड़ कर, विष पीवै सब कोइ ॥१२६॥*
अहो ! जीवों की कितनी बड़ी मूर्खता तथा उन्माद है अमृतसदृश हरिनामामृत को त्याग कर सुख के लिये विषयरस का पान करते हैं ।
योगभाष्य में लिखा है कि-
भोगों के अभ्यास से इन्द्रियों की विषय वासना को कोई तृप्त नहीं कर सकता क्योंकि भोगों के अभ्यास से तो उनमें राग बढ़ता है तथा इन्द्रियों की चंचलता बढ़ती है । भोगों का अभ्यास सुख का कोई उपाय भी नहीं है । वह पुरुष तो बिच्छू के डंक से डसा हुआ सांप के विष से डसे हुए की तरह विषय वासना से अनुवासित हुआ महान् दुःख के समुद्र में डूब जाता है ।
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*॥ माया ॥*
*माया मैली गुणमयी, धर धर उज्ज्वल नांम ।*
*दादू मोहे सबनि को, सुर नर सब ही ठांम ॥१२७॥*
यह माया तीन गुणों वाली होने से मलिन है । फिर भी विषयभोग के रसज्ञ पुरुष इसको कान्ता मनोहरा सुलोचना सुंदरी आदि नामों से उसको पुकारते हैं और इन्हीं नामों के द्वारा देवता मानव आदि को मोहित करके यह माया ठगती है । विचारदृष्टि से यह सुन्दरी नहीं है ।
वासिष्ठ में लिखा है कि- नारी के स्तन में, नेत्र, नितम्ब भोहों में, सारवस्तु के नाम केवल मांस ही है । जो किसी काम की वस्तु नहीं, उससे मेरा क्या प्रयोजन है ।
हे ब्रह्मन ! इधर मांस, इधर रक्त हड्डियां हैं । यही नारी का शरीर है । जो कुछ ही दिनों में जीर्ण शीर्ण हो जाता है ।
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*॥ विषय अतृप्ति ॥*
*विष का अमृत नांव धर, सब कोई खावै ।*
*दादू खारा ना कहै, यहु अचरज आवै ॥१२८॥*
विष विष नहीं कहलाता किन्तु विषय ही विष है । विष तो खाने वाले की एक बार ही मारता है । परन्तु विषय तो जन्म जन्मान्तरों तक मारते ही रहते हैं । ऐसा शास्त्र में कहा है । अविवेकी विषयरस को ही अमृत मानकर अधरामृतनाम से प्रसन्न हो होकर पीते हैं यह ही सबसे बड़ा आश्चर्य है कि उस को कोई भी अपवित्र नहीं बतलाते ।
भागवत में- यह शरीर मल मूत्र से भरा हुआ होने के कारण अपवित्र तुच्छ है फिर भी उसमें आसक्त हो जाते हैं और कहते हैं कि अहो इस स्त्री का मुख कितना सुन्दर है, नाक कितनी सुघड है, मन्द मन्द मुस्कान इसकी कितनी सुन्दर है, यह शरीर त्वचा मांस स्नायु रुधिर मेदा मज्जा और हड्डियों का ढेर मल मूत्र तथा पीप से भरा हुआ है । यदि मनुष्य इसमें रमता है तो मलमूत्र के कीड़ों में और उस मनुष्य में क्या अन्तर है?
जीवनोपयोगी धन स्त्री तथा भोजन में अतृप्त होते हुए ही चले गये चले जायेंगे और वर्तमान में भी चले जा रहे हैं । स्त्री का शरीर एक मांस की पुतली है । तथा चंचल अंग वाला एक पंजर है और जिसमें स्नायु हड्डी ग्रन्थी भरी हुई है । अतः विचार करो कि ऐसे शरीर में क्या सुन्दरता है । फिर भी इसको खारा कोई नहीं कहता ।
(क्रमशः)
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