🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*निशदिन तलफै रहै उदास,*
*आतम राम तुम्हारे पास ॥*
*वपु विसरे तन की सुधि नांही,*
*दादू विरहनी मृतक मांही ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश ~ ३१७)*
====================
साभार ~ @Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
.
*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
.
*१२९. विष्णुप्रिया जी को संन्यासी स्वामी के दर्शन*
.
पाणिग्राहस्य साध्वी स्त्री जीवतो वा मृतस्य वा।
पतिलोकमभीप्सन्ती नाचरेत्किंचिदप्रियम्॥[१]
([१] सती स्त्री का यही परमधर्म है कि {अग्नि को साक्षी देकर एक बार} जिसने उस का पाणिग्रहण किया है, वह पति चाहे जीवित हो या मर गया हो बस, उसी के साथ पतिलोक में रहने की इच्छा करती हुई उस की इच्छा के विरुद्ध कोई भी आचरण न करे। सु. र. भां. ३६६/१७)
.
मेरा अपना ऐसा विश्वास है और शास्त्रों का भी यही सिद्धांत है कि यह संसार
एकान्तवासी तपस्वी महापुरुषों के पुण्य से तथा पतिव्रताओं के पातिव्रत के प्रभाव से ही स्थित है। शास्त्रों का भी यही अभिमत है कि संसार धर्म पर ही स्थित है और स्त्री-पुरुषों के लिये संसारी भोग्य-पदार्थों की आसक्ति छोड़कर प्रभु से प्रेम करना या मन, वचन तथा कर्म से पातिव्रत धर्म का पालन करना यही परमधर्म बताया गया है।
.
तपस्वी को मान-सम्मान की इच्छा पीछे से हो सकती है, भगवद्भक्ति भी प्रसिद्धि के लिये की जा सकती है, किन्तु पतिव्रता को तो संसार से कुछ मतलब ही नहीं। वह तो मालती-कुसुम की भाँति निर्जन प्रदेश में विकसित होती है और अपने प्यारे को प्रसन्न कर के अन्त में मुरझाकर वहीं जीर्ण-शीर्ण हो जाती है, उस की गुप्त सुगन्धि संसार में व्याप्त होकर लोगों का कल्याण अवश्य करती है, किन्तु इसे तो कोई परम विवेकी पुरुष ही समझ सकता है।
.
सर्वसाधारण लोगों को तो उसके अस्तित्व का भी पता नहीं। इसीलिये कहता हूँ, पातिव्रत-धर्म योग, यज्ञ, तप, पाठ-पूजा और अन्य सभी साधनों से परमश्रेष्ठ है। एक सच्ची पतिव्रता सम्पूर्ण संसार को हिला सकती है, किन्तु ऐसी पतिव्रता बहुत थोड़ी होती हैं।
.
पाठकवृन्द ! विष्णप्रिया जी की मनोव्यथा को समझें। इस अल्प वयस् में उन्हें अपने प्राणेश्वर की असह्य विरह-वेदना सहनी पड़ रही है। उन के प्राणेश्वर भक्तों के लिये भगवान हैं। वे जीवों का उद्धार भी करते हैं। असंख्य जीव उन की कृपा से संसार-सागर से पार हो गये।
.
भक्तों के लिये वे साक्षात नारायण हैं। हुआ करें, उन के लिये तो वे उन के पति-हृदयरमण पति ही हैं। वे उन के पास स्थूल शरीर से नहीं हैं तो न सही, उन के हृदय में तो पति की मूर्ति सदा विराजमान है, वे पति को छोड़कर और किसी का चिन्तन ही नहीं करतीं ! अहा, धन्य है उन की एकनिष्ठ पतिभक्ति को।
.
विष्णुप्रिया जी की आन्तरिक इच्छा थी कि एक बार इस जीवन में अपने आराध्यदेव के प्रत्यक्ष दर्शन और हो जायँ, किन्तु वे अपनी इच्छा को प्रकट किस प्रकार करतीं और किस के सामने प्रकट करतीं? यदि किसी से कहतीं भी तो वे स्वतंत्र ईश्वर हैं, किसी की बात मानने ही क्यों लगे ? इसलिये अपने मनोगत भावों को हृदय में ही दबाकर वे अपने इष्टदेव के चरणों में ही मन से प्रार्थना करने लगीं।
.
वे प्रेमाकर्षण पर विश्वास रखती हुई कहने लगीं- 'वे तो मेरे घट की एक-एक बात को जानने वाले हैं, मेरा यदि सच्चा प्रेम होगा तो वे यहीं मुझे दर्शन देने आ जायँगे।' यही सोचकर वे चुपचाप बैठी रहीं। सचमुच प्रेम में बड़ा भारी आकर्षण है। हृदय में लगन होनी चाहिये, प्यारे के प्रति पूर्ण विश्वास हो, हृदय उस के लिये छटपटाता हो और स्नेह सच्चा हो तो फिर मिलने में सन्देह ही क्या है ?
.
जा पर जाकर सत्य स नेहु।
सो तेहि मिलइ न कछु संदेहु॥
मन कोई दस-बीस तो है ही नहीं। अग्नि के समान सर्वत्र मन एक ही है। पात्र-भेद से मन वैसा ही गंदा और निर्मल बन जाता है। यदि दो मन निर्मल और पवित्र बन जायँ तो शरीर चाहे कहीं भी पड़े रहें, दोनों के मनोगत भावों को दोनों ही लाख कोस पर बैठे हुए भी समझने में समर्थ हो सकते हैं।
.
शान्तिपुर में बैठे हुए प्रभु को भी विष्णुप्रिया जी का बेतार का तार मिल गया। प्रभु मानो उन्हीं को कृतार्थ कर ने नवद्वीप जा ने की इच्छा से अद्वैताचार्य से विदा लेकर विद्यानगर की ओर चल पड़े। वहाँ पहुँचकर प्रभु सार्वभौम भट्टाचार्य भाई वाचस्पति के घर पर ठहरे। लोगों की अपार भीड़ प्रभु के दर्शनों के लिये आ ने लगी।
.
जो भी सुनता वही नाव से, घड़ों से तथा हाथों से तैरकर गंगा जी को पार कर के विद्यासागर प्रभु के दर्शनों के लिये चल देता। उस समय दोनों घाटों पर नरमुण्ड-ही-नरमुण्ड दिखायी देते। प्रभु के वहाँ पहुँच ने से एक प्रकार का मेला-सा लग गया। गंगा जी के झाउओं का जंगल मनुष्यों के पदाघात से चूर्ण होकर सुन्दर राजपथ बन गया। लोग महाप्रभु की जय-जयकार करते हुए महान कोलाहल करते और प्रभु-दर्शनों की अपनी आकुलता को प्रकट करते।
महाप्रभु इस भीड़-भाड़ और कोलाहल से उबकर दो-चार भक्तों के साथ धीरे से मनुष्यों की दृष्टि बचाते हुए विद्यानगर से कुलिया के लिये चले गये। प्रभु के दर्शन न पा ने से लोग वाचस्पति पण्डित को कोस ने लगे। उन्हें भाँति-भाँति की उलटी-सीधी बातें सुना ने लगे। अन्त में जब उन्हें पता चला कि प्रभु तो यहाँ से चुप के ही निकल गये, तब तो उन के दुःख का ठिकाना नहीं रहा, वे सभी प्रभु के विरह में जोरों से रुदन करने लगे।
.
इतने में ही एक ब्राह्मण ने आकर समाचार दिया कि प्रभु तो कुलिया पहुँच गये। तब वाचस्पति उस अपार भीड़ के अग्रणी बनकर कुलिया की ही ओर चले। कुलिया पहुँचकर लोगों ने प्रभुदर्शनों की अपनी व्यग्रता प्रकट की, तब प्रभु ने छत पर चढ़कर अपने दर्शनों से लोगों को कृतार्थ किया। बहुत- से लोग प्रभु के दर्शनों से अपने को धन्य मानते हुए अपने-अपने स्थानों को लौट गये, किन्तु जित ने लोग जाते थे, उतने ही और भी बढ़ जाते थे, सायंकाल तक यही दृश्य रहा।
.
प्रभु के ऐसे लोकव्यापी प्रभाव को देखकर पहले जिन्होंने इन से द्वेष किया था, वे सभी अपने पूर्व-कृत्यों पर पश्चात्ताप प्रकट करते हुए प्रभु की शरण में आये और अपने-अपने अपराधों के लिये उनसे क्षमा चाही। विरोधियों के हृदय प्रभु के संन्यास को देखते ही नवनीत के समान कोमल हो गये थे।
.
प्रेम का त्याग ही तो भूषण है। त्याग के बिना प्रेम प्रस्फटित होता ही नहीं। संग्रही और परिग्रही के जीवन में प्रेम किस प्रकार उत्पन्न हो सकता है, प्रभु के प्रेम के प्रभाव से उन पापकर्म वाले निन्द कों के हृदयों में भी प्रेम की तरंगें हिलोरें मारने लगीं। सब से पहले तो विद्यानगर के परम भागवती पण्डित देवानन्द जी प्रभु के शरणापन्न हुए और उन्होंने अपने ही अपराध-भंजन की याचना नहीं की, किन्तु प्रभु से यह वचन ले लिया कि यहाँ आकर जो कोई भी आप से अपने पूर्वकृत अपराधों के लिये क्षमा-याचना करेगा, उसे आप कृपापूर्वक क्षमा-दान दे देंगे।
.
महाप्रभु के विशाल हृदय में किसी के पूर्वकृत अपराधों का स्मरण ही नहीं था, वे महापुरुष थे। वे संसारी लोगों के स्वभाव से विवश होकर कहे हुए वचनों का बुरा ही क्यों मान ने लगे ? वे तो जानते थे- 'सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि' ज्ञान पुरुष भी अपनी प्रकृति के अनुसार ही सभी चेष्टाएँ करता है, इसलिये किसी की कैसी भी बात को बुरा न मानना चाहिये। फिर भी उन्हों ने देवानन्द जी की प्रसन्नता के निमित्त अ पराध-भंजन की स्वीकृति दे दी। सभी ने प्रभु के चरणों में आत्म-समर्पण किया और प्रभु ने उन्हें गले से लगाया।
.
प्रभु के छोटे-बड़े सभी भक्त तथा भक्तों की स्त्रियां-बच्चे यहाँ कुलिया में आकर उन के दर्शन कर गये थे। शचीमाता शान्तिपुर में ही मिल आयी थीं। कोई भी भक्त प्रभुदर्शनों से वंचित नहीं रहा। महाप्रभु पांच-सात दिन कुलिया में ठहरे। इतने दिनों तक कुलिया में मेला-सा ही लगा रहा। इतने पर भी एकान्त में प्रभु का चिन्तन करती हुई विष्णुप्रिया जी अपने घर के भीतर ही बैठी रहीं।
.
वे एक सती-साध्वी कुलवधू की भाँति घर से बाहर नहीं निकलीं, मानों उन्हीं को अप ने दर्शनों से कृतार्थ कर ने के निमित्त प्रभु ने नवद्वीप जा ने की इच्छा प्रकट की। भक्तों के आनन्द का ठिकाना नहीं रहा। उसी समय नौ का मंगायी गयी और प्रभु अपने दस-पांच अन्तरंग भक्तों के साथ गंगापार कर के नवद्वीप घाट पर पहुँचे। घाट की सीढियों पर चढ़कर प्रभु शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी की कुटिया पर पहुँचे।
.
ब्रह्मचारी जी अपने भाग्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए प्रभु के पैरों में लोट-पोट हो ने लगे। क्षणभर में ही यह समाचार सम्पूर्ण नगर में फैल गया। लोग चारों ओर से आ-आकर प्रभु के दर्शनों से अपने को कृतार्थ मान ने लगे। समाचार पाते ही शचीमाता भी जैसे बैठी थीं, वै से ही दौड़ी आयीं। प्रभु ने माता की चरण-वन्दना की। माता अपने अश्रुओं से प्रभु के वस्त्रों को भिगो ने लगी।
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें