शनिवार, 9 मई 2020

*१२९. विष्णुप्रिया जी को संन्यासी स्वामी के दर्शन*

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*दादू विरह वियोग न सहि सकूँ, तन मन धरै न धीर ।*
*कोई कहो मेरे पीव को, मेटे मेरी पीर ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग)*
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साभार ~ @Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*१२९. विष्णुप्रिया जी को संन्यासी स्वामी के दर्शन*
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प्रभु चुपचाप खड़े कुछ सोच रहे थे, किसी की कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई। तब प्रभु पैरों में खड़ाऊं पहने धीरे-धीरे शचीमाता के साथ घर की ओर चल ने लगे। एक-एक करके उन्हें सभी बातें स्मरण हो ने लगीं। पांच-छः वर्ष पूर्व जिस घाट पर वे स्नान करते थे वह घाट इतने आदमियों के रहने पर भी सूना-सा प्रतीत हुआ।
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सभी पूर्व- परिचित वृक्ष हिल-हिलकर मानो प्रभु का स्वागत कर रहे हों। वे ही भवन, वे ही अट्टालिकाएं, वे ही प्राचीन पथ, वे ही देवस्थान प्रभु की स्मृति को फिर से नूतन बना ने लगे। महाप्रभु नीची निगाह किये हुए आगे-आगे जा रहे थे। पीछे से लोगों की अपार भीड़ हरिध्वनि करती हुई आ रही थी। घर के साम ने आकर प्रभु खड़े हो गये।
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विष्णुप्रिया जी का दिल धड़क ने लगा। वे अप ने प्रेम के इतने भारी वेग को सहन करने में समर्थ न हो सकीं। झरोखे में से उन्हों ने अपने जीवनसर्वस्व की झांकी की। सिर मुंड़े हुए और गेरुए वस्त्र धारण किये प्रभु को विष्णुप्रिया जी ने अभी सर्वप्रथम देखा है।
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उनके प्रकाशमान चेहरे को देखकर विष्णुप्रिया जी चित्र में लिखी मूर्ति के ही समान बन गयीं। उनके नेत्रों में से निकलने वाले निरन्तर के अश्रुकण ही उन की सजीवकता का समर्थन कर रहे थे। विष्णुप्रिया जी की इच्छा अपने प्राणेश के पाद-पद्यों में प्रणत होकर कुछ प्रार्थना करने की थी, किन्तु इतनी अपार भीड़ में कुल-वधू बाहर कै से जाय, यही सोचकर वे दुविधा में पड़ गयीं।
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फिर उन्हों ने सोचा, जब वे यहाँ तक आये हैं, संन्यासी होकर भी उन्होंने इतनी अनुकम्पा की है, तब मुझे बाहर जाने में अब क्या लाज? लोक-लाज सब इन्हीं के चरणों की प्राप्ति के ही निमित्त तो हैं, जब ये चरण साक्षात सम्मुख ही उपस्थित हैं, तब इन के स्पर्श-सुख से अप ने को वंचित क्यों रखूं?
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यह सोचकर विष्णुप्रिया जी जैसे बैठी थीं वैसे ही प्रभु के पादपद्यों का स्पर्श कर ने चलीं। उन्होंने वेणी बांधना बन्द कर दिया था, शरीर के सभी अंगों के आभूषण उतार दिये थे, आहार भी बहुत ही कम कर दिया था। नित्य के कम आहार से उनका शरीर क्षीण हो गया था। वे निरन्तर प्रभु का ही ध्यान किया करती थीं।
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प्रभु-दर्शनों की लालसा से क्षीण काय, मलिनवसना विष्णुप्रिया जी अपने सम्पूर्ण शरीर को संकुचित बनाती हुई जल्दी से प्रभु की ओर चलीं। प्रभु दृष्टि उठाकर किसी की ओर नहीं देखते थे, वे पृथ्वी की ही ओर खड़े-खड़े ताक रहे थे। उसी समय उन्होंने देखा, मलिन वस्त्र पहने एक स्त्री उन के चरणों में आकर गिर पड़ी।
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स्त्री-स्पर्श से भयभीत होकर प्रभु दो कदम पीछे हट गये। विष्णुप्रिया जी सुबकियां भर-भरकर धीरे-धीरे रुदन कर ने लगीं। प्रभु ने भर्राई हुई आवाज में पूछा- 'तुम कौन हो ?' हाय रे वैराग्य ! तेरी ऐसी कठोरता को बार-बार धिक्कार है, जो अप ने शरीर का आधा अंग कही जाती है, जिस के लिये स्वामी को छोड़कर दूसरा कोई है ही नहीं, उसी का निर्दयी स्वामी, उस के जीवन का सर्वस्व, उस का इष्टदेव उस से पूछता है- 'तुम कौन हो?'
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आकाश ! तू गिर क्यों नहीं पड़ता? पृथ्वी ! तू फट क्यों नहीं जाती? विष्णुप्रिया जी चुप नहीं, सोचा, कोई दूसरा ही मेरा परिचय करा दे, किन्तु दूसरे किस की हिम्मत थी? सभी की वाणी बंद हो गयी थी। इतनी भारी भीड़ उस समय बिलकुल शान्त हो गयी थी, चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था।
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विष्णुप्रिया जी ने जब देखा, कोई भी कुछ नहीं कहता, तब वे स्वयं ही धीरे-धीरे करुण-स्वर में कह ने लगीं- 'मैं आप के चरणों की अत्यन्त ही क्षुद्र दासी हूँ !'
महाप्रभु को अब चेत हुआ, उन्होंने कुछ ठहरकर कहा- 'तुम क्या चाहती हो।' अत्यन्त ही कातरवाणी में उन्होंने कहा- 'मैं आपकी कृपा चाहती हूँ।'
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प्रभु ने नीची दृष्टि किये हुए कहा- 'विष्णुप्रिये ! तुम अप ने नाम को सार्थक करो। संसार में विष्णु-भक्ति ही सार है, उसी को प्राप्त कर के इस जीवन को सफल बनाओ।' रोते-रोते विष्णुप्रिया जी ने कहा- 'आप के अतिरिक्त कोई दूसरे विष्णु हैं, इस बात को मैं नहीं जानती, और जान नेकी इच्छा भी नहीं हैं। मेरे तो विष्णु, कृष्ण, शिव जो भी कुछ हैं आप ही हैं। आपके चरणों के अतिरिक्त मुझे कोई दूसरा आश्रय नहीं।'
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इन हृदय विदारक वचनों को सुनकर वहाँ खड़े हुए सभी स्त्री-पुरुषों का हृदय फट ने लगा। सभी के नेत्रों से जल-धारा बह ने लगी। विष्णुप्रिया जी ने फिर कहा- 'प्रभो ! सुना है, आप जगत का उद्धार करते हैं, फिर अभागिनी विष्णुप्रिया को जगत से बाहर क्यों निकाल दिया गया हैं, इस के उद्धार की बारी क्यों नहीं आती?' प्रभु ने कहा-'तुम्हारी क्या अभिलाषा है?'
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सुबकियाँ भरते हुए ठहर-ठहरकर विष्णुप्रिया जी ने कहा- 'मुझे जीवन-यापन करने के लिये कुछ आधार मिलना चाहिये। आपके चरणों में यह कंगालिनी भिखारिणी उसी की भीख मांगती है।' थोड़ी देर सोचकर प्रभु ने अपने पैरों के दोनों खड़ाउओं को उतारते हुए कहा- 'देवि ! हम संन्यासियों के पास तुम्हें देने के लिये और है ही क्या? यह लो तुम इन पादुकाओं के ही सहारे अपने जीवन को बिताओ।'
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इतने सुनते ही विष्णुप्रिया जी ने धूलि में सने हुए अपने मस्तक को ऊपर उठाया और कांपती हुई उँगलियों से उन दोनों खड़ाउओं को सिर पर चढ़ाकर वे रुदन कर ने लगीं। उस समय जनसमूह में हाहाकर मच गया, सभी चीत्कार मारकर रुदन कर ने लगें।
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प्रभु उसी समय माता को प्रणाम कर के लौट पड़े। माता अपने प्यारे पुत्र को जाते देखकर मूर्च्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ी, प्रभु पीछे की ओर बिना देखे हुए ही जल्दी से भीड़ को चीरते हुए आगे को चल ने लगे। बहुत- से भक्त जल्दी से आगे चलकर लोगों को हटा ने लगे। इस प्रकार थोड़ी देर ही नवद्वीप में ठहरकर प्रभु नाव से उस पार पहुँच गये और वृन्दावन जाने की इच्छा से गंगा जी के किनारे-किनारे ही आगे की ओर चलने लगे।
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सैकड़ों मनुष्य घर-बार की कुछ भी परवा न कर के उसी समय प्रभु के साथ-ही-साथ वृन्दावन जा ने की इच्छा से उन के पीछे-पीछे चलने लगे। इस प्रकार तुमुल-हरिध्वनि करते हुए सागर के समान वह अपार भीड़ प्रभु के पथ का अनुसरण करने लगी।
(क्रमशः)

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