शनिवार, 9 मई 2020

*१२८. जननी के दर्शन*

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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू नैन हमारे बावरे, रोवें नहीं दिन रात ।*
*सांई संग न जागही, पीव क्यों पूछे बात ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग)*
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साभार ~ @Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*१२८. जननी के दर्शन*
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संसार में मनुष्य सब बातोंका थोड़ा-बहुत अनुभव कर सकता हैं, किन्तु सती-साध्वी- आर्य-ललनाओं की विरह-वेदना को समझने की और समझकर अनुभव करने की सामर्थ्‍य किसी में भी नहीं है। भक्त तो अपने प्यारे प्रभु के दर्शन करने शान्तिपुर चले जायंगे।
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वृद्धा माता भी भक्तों के साथ दौला पर चढ़कर शान्तिपुर में अपने प्यारे लाल का माथा सूंघ आयेगी और अपनी चिरदिन की साधको पूर्ण कर आयेगी, किन्तु पतिव्रता विष्णुप्रिया की क्या दशा होगी? दो कोस पर बैठे हुए भी अपने प्राणेश्वर के दर्शन से वह वंचित ही रहेंगी। उनके लिये उनके पति नीलाचल हों चाहे शान्तिपुर दोनों ही स्थान समान हैं। हाय रे समाज ! तूने पविव्रताओं के लिये इतनी कठोरता क्यों स्थापित की है ?
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रात्रि-दिन जिनकी मूरति आँखों में नृत्य करती रहती है, प्रतिक्षण हृदय जिनका चिन्तन करता रहता है, वे ही प्राणरमण प्रियतम इतने समीप रहने पर भी बहुत दूर ही बने हुए हैं। विष्णुप्रिया अपने मनोव्यथा को किसके सामने प्रकट करतीं ? प्रकट करने की बात भी तो नहीं थी, यह तो हृदय के गहरे घाव की आन्तरिक कसक थी, इसे तो कोई भुक्तभोगी ही समझ सकता था।
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बेचारी वाणी की क्या सामर्थ्‍य जो उस वेदना को व्यक्त कर सके। विष्णप्रिया अपने पति के शयनकक्ष में जाकर चुपचाप बैठ गयीं। उस समय उनकी आँखोंमें एक भी आंसू नहीं था, उनका हृदय जल नहीं रहा था, धीरे-धीरे सुलग रहा था, उसमें से कड़वा-कड़वा धुआं निकलकर विष्णुप्रिया जी के कमल के समान विकसित मुख को म्लान बना रहा था।
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विष्णुप्रिया जी सामने की खूंटी की ओर टकट की लगाये देख रही थीं। एक-एक करके उस रात्रि की सभी बातें आ-आकर उनकी दृष्टि के सामने प्रत्यक्ष नृत्य करने लगीं। इसी खूंटी पर महीन पीले रंग का उनके ओढ़ने का वस्त्र लटक रहा था। यहीं खाट पर मैं उनके अरुण रंग वाले कोमल चरणों को धीरे-धीरे सुहरा रही थी।
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वे बार-बार मेरा आलिंगन करते और कहते- 'तुम तो पगली हुई हो, रोती क्यों हो, हंस दो। अच्छा, एक बार हंस दो' ऐसा कह-कहकर वे बार-बार मेरी ठाडी को अपनी नरम-नरम ऊंगलियों से ऊपर की ओर उठाते थे, उसी समय मुझे नींद आ गयी। इन विचारों के साथ-ही-साथ सचमुच विष्णुप्रिया जी को नींद आ गयी।
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शचीमाता शान्तिपुर जाने के लिये तड़प रही थीं। उनका हृदय बांसों ऊपर को उछाल रहा था, वे सोचती थीं कि पंख होते तो मैं अभी उड़कर अपने निमाई के चन्द्रमा के समान शीतल मुख को चूमती और उसके सोने के समान शरीर पर अपना हाथ फेरकर अपनी चिरदिन की इच्छा को पूर्ण करती। वे अन्तिम समय में विष्णुप्रिया से मिलने के लिये उन्हें ढूंढ़ती हुई उसी घर में जा पहुँची।
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वहाँ जाकर उन्होंने जो देखा उसे देखकर तो वे एकदम भयभीत हो उठीं। विष्णुप्रिया जी की आँखें एकदम खुली हुई थीं, उनके पलक नहीं गिरते थे। चेहरे पर विरहजन्य वेदना की रेखाएं व्यक्त होकर उनके आन्तरिक असह्य दुःख की स्पष्ट सूचना दे रही थीं। उनका शरीर जड वस्तु के समान ज्यों-का-त्यों ही रखा था, उसमें जीवन के कोई चिह्न नहीं थे।
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भयभीत होकर माता ने पुकारा- 'बेटी ! बेटी ! विष्णुप्रिया ! हाय ! बेटी ! तू भी मुझे धोखा दे गयी क्या ?' यह कहकर माता अपने कांपते हुए हाथों से उनके शरीर को झकझोरने लगीं। तब वह जल्दी से उठकर इधर-उधर भौंचक्की-सी देखती हुई जोरों से कहने लगी- 'क्या सचमुच वे मुझे सोती ही छोड़कर चले गये। हाय ! मैं लूट गयी। मेरा सर्वस्व अपहरण हो गया। यह देखो, खूँटी तो ख़ाली पड़ी है, उनका पीताम्बर भी नहीं है।'
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यह कहकर विष्णुप्रिया पछाड़ खाकर फिर गिर पड़ी। माता ने अपने हाथ का सहारा देते हुए कहा- 'बेटी ! तू क्या कह रही है ? अरी बावरी, यह तुझे हो क्या गया है, मैं शान्तिपुर जा रही हूँ। तू क्या कहती है ?' माता अपनी बहु की अन्तर्वेदना को समझ गयीं। नारीहृदय की वेदना यत्किंचित नारी ही समझ सकती है।
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विष्णुप्रिया जी को अब होश हुआ उन्होंने अपने भावों को छिपाते हुए कहा- 'अम्मा जी, मुझे नींद आ गयी थी, उसी में न जाने मैंने कैसा स्वप्न देखा। उसी में कुछ बकने लगी होऊंगी। हाँ, आप शान्तिपुर जाती हैं, जायँ। उन्हें देख आवें। मेरे भाग्य में उनके दर्शन नहीं बदे हैं। न सही, मेरा इतना ही सौभाग्य क्या कम है कि उनके दर्शन के लिये लाखों आदमी जाते हैं। आप जायँ, मेरी चिन्ता न करें।'
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अपनी पुत्रवधू के ऐसे दृढ़तापूर्ण वचनों को सुनकर माता का हृदय फटने लगा। उन्होंने अपनी छाती को कड़ी बनाकर उस आन्तरिक दुःख को प्रकट नहीं किया और अपनी बहु की ओर देखती हुई वे पालकी में जाकर बैठ गयीं। नित्यानन्द, वासुदेव, चन्द्रशेखर आचार्यरत्न तथा अन्यान्य सैकड़ों भक्त संकीर्तन करते हुए शचीमाता की पालकी के पीछे-पीछे चले।
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महाप्रभु ने जब माता के आगमन का समाचार सुना तो उठकर दरवाजे पर आ गये। उन्होंने अपने हाथों से माता की पालकी से उतारा और वे अबोध बालक की भाँति उनके चरणों में लौटने लगे। प्रभु के चरणों में नित्यानन्द जी लोट रहे थे और अन्यान्य भक्त एक-दूसरे के चरणों को पकड़े हुए रुदन कर रहे थे।
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बहुत देर तक यह करुणापूर्ण प्रेम-दृश्य ज्यों-का-त्यों ही बना रहा। तब माता ने अपने काँपते हुए हाथों से सिंह के समान अपने तेजस्वी संन्यासी पुत्र को उठाकर छाती से लगाया। माता के स्तनों से आप-ही-आप दूध निकलने लगा और उस दूध से पृथ्वी भीग गयी।
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माता ने पुत्र के अंग में लगी हुई धूलि अपने आंचल से पोंछी, पुत्र के मुख को चूमा, उनके माथे को सूंघा और सम्पूर्ण शरीर पर हाथ फिराती रही। प्रेम के कारण वह कुछ कह नहीं सकी। बहुत देर के अनन्तर प्रभु माता को साथ लेकर भीतर घर में गये। वे भाँति-भाँति से माता की स्तुति करने लगे। अपने गृह-त्यागरूपी अपराध के निमित्त क्षमा माँगने लगे और माता के प्रति असीम प्रेम प्रदर्शित करने लगे। माता इतने दिनों के पश्चात् अपने प्यारे पुत्र को पाकर परम प्रसन्न हुई और अपने आँसूओं से उनके वस्त्रोंको भिगोती हुई भाँति-भाँति के प्रेम-वाक्य कहले लगी।
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उस समय माता-पुत्र का यह सम्मिलन अपूर्व ही था। रात्रि में सभी भक्तों ने मिलकर संकीर्तन किया। माता ने अपने हाथों से अपने संन्यासी पुत्र को भोजन कराया। माता की संतुष्टि के निमित्त उस दिन प्रभु ने खूब डटकर भोजन किया। दूसरे दिन प्रभु ने भक्तों के सहित माता को विदा किया। माता ने घर आने का आग्रह किया। प्रभु ने वचन दिया कि अभी तो मैं पांच-सात दिन यहीं हूँ, हो सका तो आऊंगा। माता फिर मिलने की आशा रखती हुई नवद्वीप को लौट गयी।
(क्रमशः)

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