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*बिन देखे दुख पाइये,*
*हाँ हो इब विलम्ब न लाइ ।*
*दादू दरशन कारणैं,*
*हाँ हो सुख दीजे आइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद. ४१९)*
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साभार ~ @Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*१२५. प्रकाशानन्द जी के साथ पत्र-व्यवहार*
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मनसि वचसि काये प्रेमपीयूषपूर्णा-
स्त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः।
परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं
निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः॥[१]
([१] जो मन, वाणी और शरीर में प्रेमरूपी अमृत से भरे हुए हैं, उपकार-परम्पराओं से जो त्रिभुवन को प्रसन्न करते हैं और दूसरों के छोटे-से-छोटे गुण को भी पर्वत के समान विशाल मानकर जो मन-ही-मन प्रफुल्लित होते हैं, ऐसे सच्चे संत इस वसुधातलपर कितने हैं? अर्थात पृथ्वी को अपनी पदधूलि से पावन बनाने वाले ऐसे संत महापुरुष लाखों में कोई बिरले ही होते हैं।)
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महाप्रभु गौरांगदेव के सार्वभौम भट्टाचार्य ने एक स्रोत में एक सौ आठ नाम बताये हैं। उनमें से एक नाम मुझे अत्यन्त ही प्रिय है वह है 'अदोष-दर्शी'। सचमुच महाप्रभु अदोष-दर्शी थे, वे मुख से ही दूसरों की बुराई न करते हों, यही नहीं, किन्तु वे लोगोंके दोषों की ओर ध्यान नही नहीं देते थे।
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उनके जीवन मे कटुता कहीं भी नहीं पायी जाती। वे बड़ो के सामने सदा सुशील बने रहते। संन्यासी होने पर भी उन्होंने कभी संन्यासीपने का अभिमान नहीं किया, सदा अपने से ज्ञानवृद्ध और वयोवृद्ध पुरुषों के सामने वे नम्रतापूर्वक बर्ताव करते। सदा उनके लिये सम्मानसूचक सम्बोधन का प्रयोग करते।
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छोटे भक्तों से अत्यन्त ही स्नेह के साथ और अपने बड़प्पन को भुलाकर इस प्रकार बातें करते कि उस समय अपने में और उसमें किसी प्रकार का भेद-भाव न रहने देते। इन्हीं सब कारणों से तो भक्त इन्हें प्राणों से अधिक प्यार करते और अपने को सदा प्रभु की इतनी असीम कृपा के भार से दबा हुआ-सा समझते। जहाँ अत्यन्त ही प्रेम होता है, वहीं भगवान प्रकट हो जाते हैं।
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भगवान का न कोई एक निश्चित रूप है, न कोई एक ही नियत नाम। नाम-रूप से परे होने पर भी उनके असंख्यों रूप हैं और अगणित नाम हैं। जिसे जो नाम प्रिय हो उसी नामरूप द्वारा प्रभु प्रकट हो जाते हैं। भगवान प्रेममय तथा भावमय हैं। जहाँ भी प्रेम हो जाय, जिसमें भी दृढ़ भावना हो जाय, उसके लिये वही सच्चा ईश्वर का स्वरूप है, तभी तो गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है-
जिन्ह कें रही भावना जैसी।
प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी॥
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जब प्रेमपात्र अपने प्यारे के असीम अनुकम्पा के भार से दबने लगता है, तब उसकी स्वतः ही इच्छा होती है कि मैं अपने प्यारे के गुणों का बखान करूँ। वह ऐसा करने के लिये विवश हो जाता है। उससे उसकी बिना प्रशंसा किये रहा ही नहीं जाता। प्रेम में यही तो विशेषता है। प्रेमी अपने आनन्द को सब में बाँटना चाहता है।
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वह स्वार्थी पुरुष के समान स्वयं अकेला ही उसकी मधुमय मिठास से तृप्त होना नहीं चाहता। दूसरों को भी उस अद्भुत रस का आस्वादन कराने के लिये व्यग्र हो उठता है। उसी व्यग्रता में वह विवश होकर अपने उपास्यदेव के गुण गाने लगता है। भक्त लोग महाप्रभु में भगवत-भावना रखते थे।
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इन सबके अग्रणी थे परम शास्त्रवेत्ता श्रीअद्वैताचार्य। इसलिये उन्होंने ही पहले-पहल नीलाचल में ही गौर-संकीर्तन का श्री गणेश किया। तब तक गौरांग के सम्बन्ध के पदों की रचना नहीं हुई थी; इसलिये अद्वैताचार्य ने स्वयं ही निम्न पद बनाया-
श्रीचैतन्य नारायण करुणासागर।
दुःखितेर बन्धु प्रभु मोर दयाकर॥
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इस पद की रचना करके सभी भक्तों से उन्होंने इस ताल-स्वर में गवाया। सभी भक्त प्रेम में विभोर होकर इस पद का संकीर्तन करने लगे। महाप्रभु भी कीर्तन की उल्लासमय आनन्दमय सुमधुर ध्वनि सुनकर वहाँ आ पहुँचे। जब उन्होंने अपने नाम का कीर्तन सुना तब तो वे उलटे पैरों ही लौट पड़े।
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पीछे कुछ प्रेमयुक्त क्रोध प्रकट करते हुए महाप्रभु श्रीवास पण्डित से कहने लगे- 'आपलोग यह क्या अनर्थ कर रहे हैं, कीर्तनीय तो वे ही श्रीहरि हैं, उनके कीर्तन को भुलाकर अब आपलोग ऐसा आचरण करने लगे हैं, जिससे लोगों में मेरा अपयश हो और परलोक में मैं पाप का भागी बनूँ' इतनेमें ही कुछ गौड़ीय भक्त संकीर्तन करते हुए जगन्नाथ जी के दर्शनों से लौटकर प्रभुके दर्शनों के लिये आ रहे थे।
वे जोरों से 'जय चैतन्य की' 'जय सचल जगन्नाथ की' 'जय संन्यासी-वेषधारी कृष्ण की' आदि जय-जयकार करते आ रहे थे। तब श्रीवास ने कहा- 'प्रभो ! हमें तो आप जो आज्ञा देंगे वही करेंगे। किन्तु हम संसार का मुख थोड़े ही बंद कर सकते हैं। आप ही बतावें इन्हें किसने सिखा दिया है ?' इससे महाप्रभु कुछ लज्जित-से होकर चुपचाप बैठे रहे, उन्होंने इस बात का कुछ भी उत्तर नहीं दिया। पीछे ज्यों-ज्यों लोगों का उत्साह बढ़ता गया, त्यों-त्यों भगवान के नामों के साथ निताई-गौर का नाम भी जुड़ता गया। पीछे से तो निताई-गौर का ही कीर्तन प्रधान बन गया।
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अधिकांश भक्तों का भाव इनके प्रति सचमुच ईश्वरप ने का था। इतने पर भी ये सावधान ही बने रहते। अपने को सदा दासानुदास ही समझते और कभी किसी के सामने अपनी भगवत्ता स्वीकार नहीं करते। इनके भक्त भिन्न-भिन्न प्रकृति के थे। बहुत-से तो इन्हें वात्सल्य भाव से ही प्यार करते, ये भी उन्हें सदा पितृभाव से पूजते तथा मानते थे।
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दामोदर पण्डित से तो पाठक परिचित ही होंगे। प्रभु ने उन्हें घर पर माता की सेवा-शुश्रूषा के निमित्त नवद्वीप भेज दिया था। एक बार जब वे पुरी में प्रभु से मिलने आये तो वैसे ही बातों-ही-बातोंमें माता का कुशल समाचार पूछते-पूछते प्रभु ने कहा- 'पण्डित जी ! माता कृष्ण-भक्ति करती हैं न ?' बस फिर क्या था, दामोदर पण्डित का क्रोध आवश्यकता से अधिक बढ़ गया।
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वे माता के चरणों में बड़ी श्रद्धा रखते थे और स्पष्ट वक्ता ऐसे थे कि प्रभु का जो भी कार्य उन्हें अशास्त्रीय या अनुचित प्रतीत होता उसे उसी समय सबके सामने ही कह देते। प्रभु के ऐसा पूछने पर उन्होंने रोष के साथ कहा- 'प्रभो ! माता की भक्ति के सम्बन्ध में आप पूछते हैं ? तो सच्ची बात तो यह है कि आप में जो कुछ थोड़ी-बहुत भगवद्-भक्ति दीखती है, यह सब माता की ही कृपा का फल है।'
(क्रमशः)
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