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*भाव भक्ति रहै रस माता,*
*प्रेम मगन गुण गावै ।*
*जीवत मुक्त होइ जन दादू,*
*अमर अभय पद पावै ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद. २७६)*
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साभार ~ @Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*१२५. प्रकाशानन्द जी के साथ पत्र-व्यवहार*
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दामोदर पण्डित के ऐसे उत्तर को सुनकर प्रभु प्रेम में विभोर हो गये और प्रेममयी माता के स्नेह का स्मरण करते हुए गद्गदकण्ठ से कहने लगे- पण्डित जी ! आपने बिलकुल सत्य बात कह दी। अहा, माता की भक्ति को कोई क्या समझ सकेगा? आपने ही यथार्थ में माता को समझाया है। सचमुच मेरे हृदय में जो भी कुछ कृष्ण-भक्ति है वह माता का ही प्रसाद है। हाय ! 'ऐसी प्रेममयी जननी को भी छोड़कर मैं चला गया।'
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इतना कहते-कहते प्रभु वस्त्र से मुख ढककर रुदन करने लगे। यह महापुरुषकी दशा है, जिन्हें भक्त साक्षात 'सचल जगन्नाथ' समझते थे। उन्होंने दामोदर पण्डित के इस रूखे उत्तर को कुछ भी बुरा न मानकर उलटी उनकी प्रशंसा ही की। तभी तो आज असंख्यों पुरुष गौर-चरणों का आश्रय ग्रहण करके असीम आनन्द का अनुभव कर रहे हैं और अपने मनुष्य-जीवन को धन्य बना रहे हैं।
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महाप्रभु की ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी थी। साधारण जनता में ही नहीं, किन्तु विद्वन्मण्डली में भी इनके अद्भुत प्रभाव की चर्चा होने लग गयी थी। सार्वभौम भट्टाचार्य की विद्वत्ता, धारणा शक्ति और पढ़ाने की सुगम और सरल शैली की सर्वत्र प्रसिद्धि हो चुकी थी। काशी के विद्वत्समाज में उनका नाम गौरव के साथ लिया जाता था।
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उन दिनों काशी में प्रकाशान्द सरस्वती नामक एक दण्डी संन्यासी परम विद्वान और वेदान्त-शास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित थे। वे सार्वभौम की अलौकिक प्रतिभा और प्रचण्ड पाण्डित्य से परिचित थे। उन्होंने जब सुना कि पुरी में एक नवीन अवस्था का युवक संन्यासी विराजमान है और सार्वभौम-जैसे विद्वान अपने वेदान्त-ज्ञान को तुच्छ समझकर उनके चरणों में भक्ति करते हैं और उसे साक्षात ईश्वर समझते हैं, तब तो उन्हें बड़ा कुतूहल हुआ।
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तब तक उनकी अद्वैत-वेदान्त में निष्ठा थी, वैसे वे सरस और प्रेमी हृदय के थे, किन्तु अभी तक उनकी सरसता छिपी ही हुई थी, उसे किसी भारी चीज की ठेस नहीं लगी थी, जिससे वह छलक कर प्रस्फुटित हो सकती। उन्होंने कौतुकवश एक श्लोक लिखकर जगन्नाथ जी आने वाले किसी गौड़ीय भक्त के हाथों प्रभु के पास भेजा।
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वह श्लोक यह था-
यत्रास्ते मणिकर्णिका मलहरी स्वर्दीर्घिका दीर्घिका
रत्नं तारकमोक्षदं मृततनौ शम्भुः स्वयं यच्छति।
एतत्त्वद्भुतमेव यत् सुरपुरान्निर्वाणमार्गस्थितान्
मूढोऽन्यत्र मरीचिकासु पशुवत् प्रत्याशया धावति॥
इस श्लोक में ज्ञान को प्रधानता दी गयी और मोक्ष को ही परम पुरुषार्थ बताकर उसी की प्राप्ति के लिये संकेत किया गया है। इसका भाव यह है- 'जिस स्थान पर मर्णिकर्णिका कुण्ड और पाप-ताप-हारिणी स्वर्दीर्घिका भगवती भागीरथी हैं, जहाँ मुर्दे को देवाधिदेव भगवान शूलपाणि स्वयं मोक्ष देने वाले तारकरत्न को प्रदान करते हैं, मूर्खलोग ऐसी परमपावन मोक्ष के मार्ग में स्थित सुरपुरी का परित्याग करके पृथ्वी पर पशु के समान इधर-उधर भटकते फिरते हैं, यही आश्चर्य है।'
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गौड़ीय भक्त ने यथासमय नीलाचल पहुँचकर पूज्यपाद प्रकाशानन्द जी का पत्र प्रभु के पादपद्यों में समर्पित किया। प्रभु पत्र को पाकर और प्रकाशानन्द जी का नाम सुनकर बहुत अधिक प्रसन्न हुए। उन्होंने बड़े ही आदर के सहित पत्र को स्वयं खोला और खोलकर पढ़ने लगे।
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श्लोकों को पढ़ते ही प्रभु उसका भाव समझ गये और मन्द-मन्द मुसकराते हुए वे सार्वभौम आदि भक्तों की ओर देखने लगे। भक्तों के जिज्ञासा करने पर स्वरूपदानमोदर ने यह पत्र पढ़कर उपस्थित सभी भक्तों को सुना दिया। प्रभु ने श्रीपाद प्रकाशानन्द जी के पाण्डित्य की प्रशंसा की और उनके सम्मानार्थ स्वरूप गोस्वामी से एक श्लोक लिखवाकर उसी भक्त के हाथ उत्तरस्वरूप में उनके पास भिजवा दिया।
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वह श्लोक यह है-
घर्माम्भो मणिकर्णिका भगवतः पादाम्बु भागीरथी
काशीनां पतिरर्द्धमेव भजते श्रीविश्वनाथः स्वयम्।
एतस्यैव हि नाम शम्भुनगरे निस्तारकं तारकं
तस्मात्कृष्णपदाम्बुजं भज सखे! श्रीपादनिर्वाणदम्॥
'जिनके पसीन के जल से मणिकर्णिकाकी उत्पत्ति हुई है, भगवती भागीरथी जिनके चरण-जल से उत्पन्न हुई हैं, स्वयं साक्षात काशीपति भगवान विश्वनाथ जिनके आधे अंग बने हुए हैं और काशी-नगरी में जिनका तारक नाम ही जीवों को संसार-सागर से तारने में समर्थ है। हे सखे ! ऐसे मोक्षदायक श्रीकृष्ण-चरणों का भजन तुम क्यों नहीं करते? अर्थात उन्हीं चरणारविन्दों का चिन्तन करो।' इस श्लोक में भगवद्-भक्ति को प्रधानता दी गयी है और मुक्ति को भक्ति के सामने तुच्छ बताया है।
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इस उत्तर को पाकर स्वामी प्रकाशानन्द जी महाराज की क्या दशा हुई होगी, इसे तो वे ही जानें, किन्तु उन्होंने थोड़े दिनों के बाद एक श्लोक प्रभु के पास और भेजा। महाप्रभु का नियम था कि वे भगवान के प्रसाद पाने में आगा-पीछा नहीं करते थे। मन्दिर का प्रसाद जब भी उन्हें मिल जाता तभी उसे मुंह में डाल देते थे।
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भक्त उन्हें प्राणों से भी अधिक प्यार करते थे, इसलिये वे इन्हें नित्य ही बहुत बढ़िया-बढ़िया विवधि प्रकार के पदार्थ खिलाया करते थे। प्रभु भी उनकी प्रसन्नता के निमित्त सभी प्रकार के पदार्थों को खा लेते और दिन में अनेकों बार। यह संन्यास के साधारण नियम के विरुद्ध आचरण है।
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संन्यासी को तो एक बार ही भिक्षा में जो रूखा-सूख अन्न मिल जाय, उसी से उदर-पूर्ति कर लेनी चाहिये। उसे विविध प्रकार के रसों का पृथक्-पृथक् स्वाद नहीं लेना चाहिये, किन्तु महाप्रभु तो प्रेमी थे। वे संन्यासी भी थे। किन्तु पहले प्रेमी और पीछे संन्यासी। प्रेम के सामने वे संन्यास-नियमों को कभी-कभी स्वतः ही भूल जाते, कहावत भी है 'प्रेम में नियम नहीं।'
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सचमुच वे प्रेमी भक्तों के प्रेम के वशीभूत होकर उनकी प्रसन्नता के निमित्त नियमों की विशेष परवा नहीं करते थे। इसे मस्तिष्क प्रधान विचारक कैसे समझ सकता है? वह तो नियमों को ईश्वर समझता है और कठोरता तथा हठ के साथ नियमों को पालन करता है। ऐसा पुरुष भी वन्दनीय और पूजनीय है, किन्तु दूसरों को भी ऐसा ही बनने के लिये आग्रह करना ठीक नहीं। प्रेमी का तो पथ ही दूसरा है।
(क्रमशः)
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