🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*क्या जीये में जीवना, बिन दर्शन बेहाल ।*
*दादू सोई जीवना, प्रकट परसन लाल ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग)*
====================
साभार ~ @Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
.
*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
.
*१२८. जननी के दर्शन*
.
जननी जन्मभूमिश्च जाह्नवी च जनार्दन:।
जनकः पंचमश्चैव जकाराः पंच दुर्लभाः॥[१]
([१] जननी, जन्मभूमि, जाह्नवी(गंगा जी), जनार्दन और जनक(पिता) - ये पाँच जकार संसार में दुर्लभ हैं अर्थात भाग्यशाली को ही इनके दर्शन होते हैं। सु. र. भां. १६३/१७)
.
नीलाचल से प्रस्थान करते समय प्रभु ने सार्वभौम आदि भक्तों से कहा था- 'गौड़-देश होकर वृन्दावन जाने से मेरे एक पन्थ दो काज हो जायँगे। प्रेममयी माता के दर्शन हो जायंगे। भागीरथी-स्नान और भक्तों से भेंट करता हुआ मैं रास्ते में जन्मभूमि के भी दर्शन करता जाऊँगा।'
.
महाप्रभु जनार्दन के हो जाने पर भी जननी, जन्मभूमि और जाह्नवी के प्रेम को नहीं भुला सके थे। उनके विशाल हृदय में इन तीनों ही के लिये विशेष स्थान था। इन तीनोंके दर्शनोंके लिये वे व्यग्र हो रहे थे। उड़ीसा-प्रान्त की अन्तिम सीमा पर पहुँचते ही त्रिताप-हारिणी भगवती भागीरथी के मनको परम प्रसन्नता प्रदान करने वाले शुभ दर्शन हुए।
.
आज चिरकाल के अनन्तर जगद्वन्द्य सुरसरि भगवती जाह्नवीके दर्शनमात्र से ही प्रभु मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े और-'गंगे-गंगे' कहकर जोरों से रुदन करने लगे। वे गद्गद कण्ठ से गंगा जी की स्तुति कर रहे थे। कुछ देर के अनन्तर प्रभु उठे और भक्तों के सहित उन्होंने गंगा जी के निर्मल शीतल जल में स्नान तथा आचमन किया।
.
उड़ीसा-सीमा-प्रान्त के अधिकारी ने प्रभु के स्वागत-सत्कार का पहले से ही विशेष प्रबन्ध कर रखा था, प्रभु के दर्शन से अधिकारी तथा सभी राज-कर्मचारियों को परम प्रसन्नता हुई। वे प्रभु के पैरों में पड़कर रुदन करने लगे। प्रभु ने उन्हें छाती से चिपटाकर कृपा प्रदर्शित करते हुए उनके शरीरों पर अपना कोमल हाथ फेरा।
.
प्रभु का स्पर्श पाते ही वे प्रेम में उन्मत्त होकर 'हरि बोल, हरि बोल' कहकर नृत्य करने लगे। प्रभु के आगमन का समाचार सुनकर आस-पास के सभी ग्रामों के स्त्री-पुरुष तथा बालक-बच्चे प्रभु के दर्शनों की लालसा से घाट पर आ-आकर एकत्रित हो गये। वे सभी ऊपर को हाथ उठा-उठाकर नृत्य करने लगे और आकाश को हिला देने वाली हरि-ध्वनि से दिशा-विदिशाओं को गुंजाने लगे।
.
उस पार गौड़-देश की सीमा थी, गौड़-देश के सीमाधिकारी यवन ने इस भारी कोलाहल को सुना। इसलिये उसने इसका असली कारण जानने के लिये एक गुप्तचर को भेजा। उन दिनों दोनों राज्यों में घोर तनातनी हो रही थी। यहाँ से गौड़ जाने के तीन रास्ते थे, तीनों ही युद्ध के कारण बन्द थे। आपस में एक-दूसरे को सदा भय ही बना रहता। वह गुप्तचर हिन्दू का वेष धारण करके प्रभु के समीप आया। प्रभु के दर्शन पाते ही वह समीप पहुँचा।
.
प्रान्ताधिप ने उससे उसकी प्रसन्नता का कारण पूछा। उसने गद्गद कण्ठ से ठहर-ठहरकर कहा- 'सरकार ! क्या बताऊं, जिन्हें मैं अभी देखकर आया हूँ, वे तो मानो सौन्दर्य के अवतार ही हैं। उनकी सूरत देखते ही मैं शरीर की सुधि भूल गया। उनकी चितवन में जादू है, मुस्कान में मादकता है और वाणीमें उन्मादकारी रस है। आप उन्हें एक बार देखभर लें, सब बातें भूल जायँगे और उनके बेदामों के गुलाम बनकर कदमों में लोटपोट होने लगेंगे।'
.
उस गुप्तचर के मुख से ऐसी बात सुनकर अधिकारी ने अपने एक परम विश्वासी अमात्य को उड़ीसा-प्रान्त के अधिकारी के समीप भेजा और प्रभु के दर्शन की अपनी इच्छा प्रकट की। मंत्री महोदय भी प्रभु के विश्वव्यापी प्रेम के प्रभाव से बचने नहीं पाये, वे भी उस अनुपम रसासव का पान करके छक-से गये। उन्होंने प्रेमभरे वचनों में अपने स्वामी के संवाद को उड़ियाधिकारी के समीप कह सुनाया।
.
यवन-अधिकारी की ऐसी अभूतपूर्व अभिलाषा को सुनकर उडि़याधिकारी प्रभु के त्रिलोकपावन प्रेम की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहने लगे- 'महाप्रभु किसी एक के तो हैं ही नहीं, उनके ऊपर तो प्राणिमात्र का समानाधिकार है। आपके स्वामी यदि प्रभु-दर्शन की इच्छा रखते हैं तो हमारा सौभाग्य है, वे आवें और जरूर आवें। हमसे जैसा बन पड़ेगा, उनका आदर-सत्कार करेंगे, किन्तु वे ससैन्य न पधारें, अपने दस-पाँच विश्वासी सेवकों के ही साथ प्रभुदर्शन के लिये आवें।'
.
इस समाचार को पाते ही यवनाधिकारी अपने दस-बीस विश्वासी सेवकों के साथ हिन्दुओं की-सी पोशाक पहनकर प्रभु के समीप आये। उन्होंने प्रभु की चरण-वन्दना की। प्रभु ने उन्हें प्रेमपूर्वक आलिंगन प्रदान किया। वे बहुत देर तक प्रभु की स्तुति-विनय करते रहे। उडि़याधिकारी ने उनका यथोचित सम्मान और सत्कार किया, उन्हें बहुत-सी वस्तुएँ उपहारस्वरूप भेंट में दीं और उनके साथ परम मैत्री का व्यवहार किया।
.
प्रभु दर्शनों से अपने को कृतार्थ समझकर उन लोगों ने प्रभु से जाने की आज्ञा मांगी, तब महाप्रभु के साथी भक्तों में से मुकुन्द दत्त ने यवनाधिकारी को सम्बोधन करते हुए कहा- 'महाशय ! हमारे प्रभु गंगा जी के पार होना चाहते हैं, क्या आप पार होनेका समुचित प्रबन्ध कर देंगे।'
.
यवनाधिकारी ने प्रभु को प्रातःकाल पार पहुँचने का वचन दिया और वह प्रभु को तथा सभी भक्तों को प्रणाम करके अपने स्थान को लौट गया। दूसरे दिन यवनाधिकारी की भेजी हुए बहुत-सी नौकाएँ आ पहुँचीं। अधिकारी के प्रधानमंत्री ने प्रभु के पादपद्मों में प्रणाम करके प्रस्थान करने का निवेदन किया महाप्रभु उड़ीसा-प्रान्त के सभी कर्मचारियों को प्रेमाश्वासन प्रदान करके नौका पर सवार हुए।
.
उनकी नौका के चारों ओर सशस्त्र सैनिकों से युक्त बहुत-सी नावें जलदस्युओं से किसी प्रकार का भय न हो इस कारण प्रभु की रक्षा के निमित्त आगे-पीछे चलीं। इधर किनारे पर खड़े हुए उड़ियाधिकारी तथा ग्रामवासी आँसू बहाते हुए हरि-ध्वनि कर रहे थे, उधर नाव पर ही प्रभु भक्तों के साथ संकीर्तन कर रहे थे, इस प्रकार प्रेम के साथ संकीर्तन करते हुए मंत्रेश्वर नामक नाले को पार करके प्रभु भक्तों के सहित पिचलदह पहुँचे।
.
वहाँ से प्रभु ने मुसलमान-अधिकारी को विदा किया और उसे अपने हाथ से जगन्नाथ जी का प्रसाद दिया। वह प्रभुदत्त प्रेमप्रसाद को पाकर प्रसन्नता प्रकट करता हुआ और प्रभुजन्य वियोग से अधीर होता हुआ वहाँ से लौट गया। महाप्रभु उसी नाव से पानीहाटी पहुँचे। पानीहाटी-घाट पर प्रभु के आने का समाचार बात-की-बात में फैल गया।
.
चारों ओर से स्त्री-पुरुष आ-आकर 'गौरहरि की जय', 'शचीनन्दन की जय' आदि बोल-बोलकर आकाश को गुँजाने लगे। घाट पर मनुष्यों की अपार भीड़ एकत्रित हो गयी। किसी प्रकार राघव पण्डित प्रभु को अपने घर ले गये। वहाँ एक दिन ठहरकर दूसरे दिन प्रातःकाल ही प्रभु कुमारहाटी पहुँचे। नवद्वीप के श्रीवास पण्डित का एक घर कुमारहाटी भी था। उस समय वे सपरिवार वहीं थे, प्रभु के पधारने से उनके परिवारभर में प्रसन्नता छा गयी।
.
स्त्री-पुरुष, बाल-बच्चे सभी आ-आकर प्रभु के चरणों में लोट-पोट होने लगे। कांचनपाड़ा के शिवानन्द सेन प्रभु को आग्रहपूर्वक अपने घर ले गये और वहीं महाप्रभु ने मुकुन्ददत्त के भाई वासुदेव के घर को भी अपनी चरणरज से पावन किया। एक दिन वहाँ रहकर प्रभु दूसरे दिन शांतिपुर में अद्वैताचार्य के घरके लिये चले।
.
शान्तिपुर में पहुँचने के पूर्व ही नगर भर में प्रभु के आगमन का हल्ला हो गया। लोग दौड़-दौड़कर प्रभु के दर्शनों के लिये जाने लगे। महाप्रभु उस अपार भीड़ के सहित अद्वैताचार्य के घर आये। आचार्य अपने पुत्र अच्युत को साथ लेकर प्रभु के पैरों में पड़ गये। महाप्रभु ने उन्हें उठाकर छाती से लगाया और अच्युत के सिरपर बार-बार हाथ फिराने लगे।
.
इधर शचीमाता को भी किसी ने जाकर समाचार सुनाया कि प्रभु शान्तिपुर आये हुए हैं। छः वर्ष के बिछुड़े हुए अपने संन्यासी पुत्र के मुख के देखने के लिये माता व्यग्र हो उठी, उसने उसी समय आचार्य चन्द्रशेखर को बुलाया। सभी भक्त बात-की-बात में शचीमाता के आंगन में आकर एकत्रित हो गये। सभी प्रभु के दर्शनों के लिये व्यग्रता प्रकट कर रहे थे। उसी समय शचीमाता के लिये पालकी मंगायी गयी और माता भी अपने जगन्मान्य पुत्र के मुख देखने की इच्छा से शान्तिपुर जाने की शीघ्रता करने लगी।
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें