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*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग सारंग १५ (गायन समय मध्य दिन)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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२६८ - परिचय उपदेश । त्रिताल
चल चल रे मन तहां जाइये ।
चरण बिन चलबोल, श्रवण बिन सुनिबो,
बिन कर बैन बजाइये ॥टेक॥
तन नाँहीं जहं, मन नाहीं तहं,
प्राण नहीं तहं आइये ।
शब्द नहीं जहं, जीव नहीं तहं,
बिन रसना मुख गाइये ॥१॥
पवन पावक नहीं, धरणि अम्बर नहीं,
उभय नहीं तहं लाइये ।
चँद नहीं जहं, सूर नहीं तहं,
परम ज्योति सुख पाइये ॥२॥
तेज पुँज सो सुख का सागर,
झिलमिल नूर नहाइये ।
तहं चल दादू अगम अगोचर,
तामैं सहज समाइये ॥३॥
इति राग सारँग समाप्त: ॥१५॥पद ५॥
ब्रह्म साक्षात्कारार्थ उपदेश कर रहे हैं - अरे मन ! साधन द्वारा चल कर वहां जा, जहां जाने के लिए तेरे आशा रूप पैरों के बिना ही चलना होता है । बाह्य श्रवणों के बिना ही सुनना होता है । बिना हाथों के ही अनाहत ध्वनि - रूप - बँसी बजाई जाती है ।
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उस निर्विकल्प समाधि में शरीर, मन, प्राण, शब्द जीव नहीं है और बिना रसना ही भावना रूप मुख से प्रभु का यशोगान किया जाता है, वहां ही जा ।
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वहां वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश, और द्वैत - भाव नहीं है, वहां ही अपनी वृत्ति लगा, जहां चन्द्र - सूर्य भी नहीं है, वहां ही परम ज्योति दर्शन रूप सुख को प्राप्त कर,
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वह तेज - पुँज सुख का सागर है । इस झिलमिल स्वरूप में स्नान करके उस अगम अगोचर प्रभु में सहजावस्था द्वारा समा जा ।
इति श्री दादू गिरार्थ प्रकाशिका राग सारँग समाप्त ॥ १५ ॥
(क्रमशः)
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