शनिवार, 9 मई 2020

*१२७. प्रभु के वृन्दावन जाने से भक्तों को विरह*

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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू कहै, जे कुछ दिया हमको,*
*सो सब तुम ही लेहु ।*
*तुम बिन मन मानै नहीं, दरस आपणां देहु ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग)*
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साभार ~ @Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*१२७. प्रभु के वृन्दावन जाने से भक्तों को विरह*
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चांदनी रात्रि थी, ऋतु बड़ी सुहावनी थी, न तो गर्मी थी न जाड़ा। महाप्रभु ने रात्रि में ही यात्रा करने का निश्चय किया। महाराज की रानियां भी प्रभु के दर्शनों के लिये उत्सुकता प्रकट कर रही थीं, इसीलिये महाराज ने हाथियों पर जरीदार पर्दे डलवाकर उन्हें रास्ते के इधर-उधर खड़ा कर दिया, जिससे वे महाप्रभु के भलीभाँति दर्शन कर सकें।
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महाप्रभु प्रेम में पागल हुए मन्द-मन्द गति से उधर जाने लगे। उनके पीछे हाथी, घोड़े तथा बहुत-से लोगों की भीड़ चली। इस प्रकार सभी भक्तों के सहित प्रभु चित्रोत्पला नदी के किनारे आये। वहाँ महाराज की ओर से नौका पहले से ही तैयार थी।
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महाप्रभु ने भक्तों के सहित चित्रोत्पला नदी को पार किया और चतुद्वार में आकर सभी ने रात्रि व्यतीत की। जहाँ से प्रभु ने चित्रोत्पला को पार किया, वहाँ महाराज ने प्रभु की स्मृति में एक बड़ा भारी स्मृतिस्तुप बनवाया और उस घाट को तीर्थ मानकर स्नान करने के निमित्त आने लगे।
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गदाधर पण्डित का नाम तो पाठक जानते ही होंगे। ये महाप्रभु की आज्ञा से क्षेत्र-संन्यास लेकर पुरी के निकट गोपीनाथ जी के मन्दिर में उनकी सेवा करते हुए निवास करते थे। किसी तीर्थ में घर-द्वार को छोड़कर प्रतिज्ञापूर्वक रहने को क्षेत्र-संन्यास कहते हैं। वहाँ रहकर भगवत-प्रीत्यर्थ ही सब कार्य किये जायँ, इसी संकल्प से पुरुषोत्तम-क्षेत्र में गदाधर जी निवास करते थे।
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जब महाप्रभु गौड़-देश को चलने लगे, तब तो उन्हें पुरुषोत्तम-क्षेत्र में रहना असह्य हो गया और वे सब कुछ छोड़-छाड़कर प्रभु के साथ हो लिये। महाप्रभु के चरणों में उनका दृढ़ अनुराग था, वे महाप्रभु को परित्याग करके क्षणभर भी दूसरी जगह रहना नहीं चाहते थे। महाप्रभु ने इन्हें बहुत समझाया, किन्तु ये किसी प्रकार भी लौटाने को तैयार नहीं हुए।
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जब महाप्रभु ने अत्यन्त ही आग्रह किया, तब प्रेमजन्य रोष के स्वर में इन्होंने कहा- 'आप मुझे विवश क्यों कर रहे हैं। जाइये, मैं आपके साथ नहीं जाता। मैं तो नवद्वीप में शचीमाता के दर्शनों के लिये जा रहा हूँ। आप मेरे रास्ते को तो रोक ही न लेंगे। बस, इतना ही है कि मैं आपके साथ नहीं चलूँगा।'
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इतना कहकर ये प्रभु से अलग-ही-अलग चलकर कटक होते हुए यहाँ पर आकर मिल गये। महाप्रभु ने इन्हें प्रेमपूर्वक समझाते हुए कहा- 'देखो, तुम जिद्द करते हो और अपनी बात के सामने किसी की बात मानते नहीं यह अच्छी बात नहीं है। तुम सोचो तो सही तुम्हारे गौड़ चलने से दो महान पाप होंगे, एक तो गोपीनाथ भगवान की पूजा रह जायगी, दूसरे तुम्हारी प्रतिज्ञा भंग हो जायगी। इसलिये तुम नीलाचल ही लौट जाओ, मैं शीघ्र लौट आऊँगा।'
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प्रेम के अश्रु बहाते हुए गदाधर पण्डित ने कहा- 'प्रभो ! आपके लिये मैं सर्वस्व का त्याग कर सकता हूँ। आपके सामने प्रतिज्ञा कैसी ? प्रतिज्ञा आपके ही लिये तो की है, जहाँ आप हैं वहीं नीलाचल है, इसलिये मैं नीलाचल से पृथक कभी हो ही नहीं सकता।' महाप्रभु ने कहा- 'बाबा, तुम्हारा तो कुछ बिगड़ेगा नहीं। पाप सब मेरे ही सिर चढ़ेगा। यदि तुम मुझे पापी बनाना चाहते हो, तो भले ही मेरे साथ चलो, नहीं तो पुरी लौट जाओ।'
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अधीरता के साथ गदाधर स्वामीने कहा- 'प्रभो ! सभी पाप मेरे सिर हैं। मैं सभी पापों को सह लूंगा; किन्तु आपका वियोग नहीं सह सकता।' तब महाप्रभु ने कठोरता के साथ कहा- 'गदाधर ! तुम मुझे प्रसन्न करना चाहते हो, तो अभी पुरी को लौट जाओ। तुम्हारे साथ चलने से मुझे महान कष्ट होगा। यदि तुम मेरा कुछ भी सम्मान करते हो, तो तुम्हें मैं अपनी शपथ दिलाकर कहता हूँ कि तुम पुरी लौट जाओ।'
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यह कहकर प्रभु ने उनका गाढ़ालिंगन किया। प्रभु का आलिंगन पाते ही गदाधर पण्डित मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। अब आगे कहने को कोई बात ही नहीं रही। उसी समय सुयोग देखकर प्रभु ने खड़े हुए सार्वभौम भट्टाचार्य को देखकर उनसे कहा- 'भट्टाचार्य महोदय ! इन्हें अपने साथ ही पुरी ले जाइये।' भट्टाचार्य अवाक रह गये। उन्हें कुछ कहने को ही अवसर नहीं मिला। उन्होंने दुःखित चित्त में प्रभु के चरणों में प्रणाम किया।
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प्रभु उन्हें प्रेमपूर्वक गले से लगाकर आगे के लिये चल दिये और ये खड़े-खड़े प्रभु की ओर देखते हुए रोते ही रहे। अब महाप्रभु के साथ परमानन्दपुरी, स्वरूपगोस्वामी, जगदानन्द, मुकुन्द, गोविन्द, काशीश्वर, हरिदास आदि सभी भक्त गौड़ जाने की इच्छा से चले। याजपुर में पहुँचकर प्रभु ने उन दोनों राजमन्त्रियों को भी कह-सुनकर लौटा दिया। उस दिन महाप्रभु रात्रिभर रामानन्द जी से कृष्ण-कथा-कीर्तन करते रहे। रेमुना पहुँचकर राय रामानन्द जी को भी प्रभु ने लौट जाने की आज्ञा दी। वे दुःखित मन से रोते-रोते प्रभु की पदधूलि को मस्तक पर चढ़ाकर पीछे को लौटे और महाप्रभु रेमुना को पार करके आगे के लिये चल दिये।
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महाप्रभु जिस ग्राम में भी पहुँचते, वहीं महाराज प्रतापरुद्र जी की ओर से प्रभु के स्वागत के निमित्त बहुत-से आदमी मिलते। वे महाप्रभु का खूब सत्कार करते। स्थान-स्थान पर जगन्नाथ जी के प्रसाद का पहले से ही प्रबन्ध था। इस प्रकार रास्ते में कृष्ण-कीर्तन करते हुए और अपने शुभ दर्शनों से ग्रामवासी तथा राजकर्मचारियों को कृतार्थ करते हुए प्रभु उड़ीसा-राज्य की सीमा पर पहुँच गये।
(क्रमशः)

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