शुक्रवार, 8 मई 2020

*१२६. पुरी में गौड़ीय भक्तों का पुनरागमन*

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*तन गृह छाड़ै लाज पति, जब रस माता होइ ।*
*जब लग दादू सावधान, कदे न छाड़े कोइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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साभार ~ @Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*१२६. पुरी में गौड़ीय भक्तों का पुनरागमन*
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अमृतं राजसम्मानममृतं क्षीरभोजनम्।
अमृतं शिशिरे वह्निरमृतं प्रियदर्शनम्॥[१]
([१] संसार में भिन्न-भिन्न प्रकृति के पुरुष होते हैं, उन्हें जो चीजें अत्यन्त ही प्रिय प्रतीत होती हैं, उनके लिये वही वस्तुएँ अमृत हैं। मान-प्रतिष्ठा चाहने वाले को 'राजसम्मान' ही अमृत है। स्वादिष्ट पदार्थ खाने वालों के लिये क्षीर का भोजन ही अमृत है। गरीब लोगों के लिये जाड़े में अग्नि ही अमृत के समान है और प्रेमियों को अपने प्यारे का दर्शन हो जाना ही अमृततुल्य है। साधारणतया ये चारों बातें सभी लोगों को प्रिय होती हैं। सु.र.भां. १७१।५०८)
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जो सचमुच हमारे हृदय को अत्यन्त ही प्यारा लगता हो, हृदय जिसके लिये तड़पता रहता हो, यदि ऐसे प्यारे के कहीं दर्शन मिल जायँ तो हृदय में कितनी अधिक प्रसन्नता होती होगी, इसका अनुभव सहृदय सच्चे प्रेमी ही कर सकते हैं। अपने प्यारे के निमित्त दुःख सहने में भी एक प्रकार का सुख प्रतीत होता है।
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प्यार के स्मरण में आनन्द है, उसके कार्य करने में स्वर्गीय सुख है, उसके लिये तड़पने में मधुरिमा है और उसके वियोगजन्य दुःख में भी एक प्रकार का मीठा-मीठा सुख ही है। सम्मिलन में क्या है इसे बताना हमारी बुद्धि के बाहर की बात है। रथ-यात्रा को उपलक्ष्य बनाकर गौड़ीय भक्त प्रतिवर्ष नवद्वीप से नीलाचल आते थे।
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वर्तमान समय के तीर्थयात्रीगण उस समय के तीर्थयात्रियों के दुःख का अनुमान लगा ही नहीं सकते। उस समय सर्वत्र पैदल ही यात्रियों को भाँति-भाँति के क्लेश देते थे और बहुत लोगो को तो दो-दो, तीन-तीन दिन तक पार होने के लिये प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। थोड़ी-थोड़ी दूर पर राज्यसीमा बदल जाती। विधर्मी शासक तीर्थ यात्रा करने वाले स्त्री-पुरुषों की विशेष परवा ही नहीं करते थे।
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परस्पर एक राजा से दूसरे राजा के साथ युद्ध होता रहता। युद्धकाल में यात्रियों को भाँति-भाँति की असुविधाएं उठानी पड़तीं, अपने ओढ़ने-बिछाने के वस्त्र स्वयं लादने पड़ते और धीरे-धीरे पूरी यात्रा पैदल ही समाप्त करनी पड़ती। इन्हीं सब बातों के कारण उस समय तीर्थयात्रा करना एक कठिन कार्य समझा जाता था।
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नवद्वीप में जगन्नाथ जी का बीस-पचीस दिन का पैदल रास्ता है, इतने दुःख होने पर भी गौर-भक्त बड़े ही उल्लास और आनन्द के सहित प्रभु-दर्शनों की लालसा से नीलाचल प्रतिवर्ष आते। पहले तो प्रायः पुरुष ही आया करते थे और बरसात के चार मास प्रभु के साथ रहकर अपने-अपने घरों को लौट जाते। दूसरे वर्षसे भक्तों की स्त्रियाँ भी आने लगीं और प्रभु के दर्शनों से अपने को धन्य बनाने लगीं।
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दूसरे वर्ष दो-चार परम भक्ता माताएं आयी थीं, तीसरे वर्ष प्रायः सभी भक्तों की स्त्रियाँ अपने छोटे-छोटे बच्चों को साथ लेकर प्रभु-दर्शनों की इच्छा से नीलाचल चलने के लिये प्रस्तुत हो गयीं। उन्हें घर का, कुटुम्ब-परिवार का तथा रुपये-पैसे का कुछ भी ध्यान नहीं था।
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उनके लिये तो 'अवध तहाँ जहाँ रामनिवासु' वाली कहावत थी। उनका सच्चा घर तो वही था जहाँ उनके प्रभु निवास करते हैं, इसलिये पतियों के मार्ग के भय दिखाने पर भी वे भयभीत न हुई और विष्णुप्रिया जी से पूछ-पूछकर प्रभु को जो पदार्थ अत्यन्त प्रिय थे उन्हें ही बना-बनाकर प्रभु के लिये साथ ले चली हैं। किसी ने प्रभु के लिये लड्डू ही बाँधे हैं, तो कोई भाँति-भाँति के मुरब्बे तथा अचारों को ही साथ ले चली हैं।
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किसी ने सन्देश बनाये हैं, तो किसी ने वर्षों तक न बिगड़ने वाली विविध प्रकार की खोये की मिठाइयाँ ही बनायी हैं। इस प्रकार सभी भक्त और उनकी स्त्रियाँ प्रभु के निमित्त विविध प्रकार के उपहार और खाद्य पदार्थ लेकर नीलाचल के लिये तैयार हुए।
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पानीहाटी-निवासी राघव पण्डित की भगिनी महाप्रभु के चरणों में बड़ी श्रद्धा रखती थी, वह प्रतिवर्ष सुन्दर-सुन्दर सैकड़ों वस्तुएँ बनाकर एक बड़ी-सी झोली में रखकर राघव पण्डित के हाथों प्रभु के पास भेजती। उसकी चीजें कितने दिन भी क्यों न रखी रहें न तो सड़ती थीं और न खराब होती थीं। भक्तों में राघव पण्डित की झोली प्रसिद्ध थी।
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प्रभु भी राघव की झोली की चीजों को बहुत दिनों तक सुरक्षित रखते थे। नवद्वीप, पानीहाटी, कुलीनगाँव, खण्डग्राम तथा शान्तिपुर आदि सभी स्थानों के भक्त एकत्रित होकर सबसे पहले शचीमाता के आंगन में एकत्रित होते और माता की चरण-धूलि सिर पर चढ़ाकर उनकी आज्ञा लेकर ही वे प्रस्थान करते।
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अबके माता ने देखा चन्द्रशेखर आचार्यरत्न के साथ उनकी गृहिणी अर्थात शचीमाता की भगिनी भी जा रही हैं। अपने बच्चों के सहित आचार्य पत्नी सीतादेवी भी नीलाचल जाने को तैयार है। श्रीवास पण्डित की पत्नी मालिनीदेवी, शिवानन्द सेनकी स्त्री तथा उनका पुत्र चैतन्यदास, सपत्नीक मुरारी गुप्त ये सभी यात्रिक वेश में खड़े हुए हैं।
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डबडबायी आँखों से और रूँधे हुए कण्ठ से माता ने सभी को जाने की आज्ञा प्रदान की और रोते-रोते उन्होंने कहा- 'तुम्हीं सब बड़े भाग्यवान हो, जो पुरी जाकर निमाई के कमलमुख को देखोगे, न जाने मेरा भाग्योदय कब होगा, जब उस सुवर्णरंग वाले निमाई के सुन्दर मुख के देखकर अपने हृदय को शीतल बना सकूँगी। तुम सभी उससे कहना कि उस अपनी दुःखिनी माता को एक बार आकर दर्शन तो दे आये। मैं उसके कमलमुख को देखने के लिये कितनी व्याकुल हूँ।
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इसी प्रकार अपनी उम्र की स्त्रियों से विष्णुप्रिया जी ने भी संकेत से यही अभिप्राय प्रकट किया। सभी स्त्री-पुरुष मातृचरणों की वन्दना करते हुए पुरी को चल दिये। हरि-कीर्तन करते हुए किसी को भी रास्ते का कष्ट प्रतीत नहीं हुआ। सभी जगन्नाथपुरी में पहुँच गये। भक्तों का आगमन सुनकर महाप्रभु ने उनके स्वागत के लिये पहले से ही स्वरूपगोस्वामी तथा गोविन्द आदि भक्तों को भेज दिया था।
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इन सभी ने जाकर भक्तों के अग्रणी अद्वैताचार्य के चरणों में प्रणाम किया और उन्हें मालाएँ पहनायीं। फिर महाप्रभु भी आकर मिल गये और सभी को धूम-धाम के साथ अपने स्थान को ले गये। सभी के ठहरने तथा प्रसाद आदि का पूर्व की ही भाँति प्रबन्ध कर दिया गया। भक्तों की बहुत-सी स्त्रियों ने पहले-ही-पहल प्रभु को संन्यासी-वेष में देखा था।
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वे प्रभु के ऐसे भिक्षुक-वेष देखकर जोरों से रुदन करने लगीं। भक्तों की स्त्रियाँ बारी-बारी से प्रभु को भिक्षा कराने लगीं। महाप्रभु बड़े ही प्रेम के साथ सभी के निमंत्रण को स्वीकार करके उनके स्थानों पर जा-जाकर भिक्षा करने लगे। पूर्वकी ही भाँति रथयात्रा, हेरापंचमी, जन्माष्टमी, दशहरा और दीपावली आदि के उत्सव मनाये गये। गौड़ीय भक्त संकीर्तन करते-करते उन्मत्त हो जाते थे और बेसुध होकर कीर्तन में लोट-पोट हो जाते।
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महाप्रभु सबके साथ जोरों से नृत्य करते। एक दिन नृत्य करते-करते महाप्रभु कुएँ में गिर पड़े। तब भक्तों ने उन्हें निकाला, महाप्रभु के शरीर में किसी प्रकार की चोट नहीं लगी। महाप्रभु पुरी में भक्तों की विविध प्रकार से इच्छा पूर्ण किया करते थे। भक्त उन्हें जिस प्रकार भी खिला-पिलाकर सन्तुष्ट होना चाहते थे प्रभु उनकी इच्छानुसार उसी प्रकार भिक्षा करके उन्हें सन्तुष्ट करते थे।
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क्वार के दशहरे के पश्चात् सभी भक्त लौटने के लिये प्रस्तुत हुए। प्रभु पहले की भाँति फिर एक-एक से अलग-अलग मिले और उनसे उनके मनकी बातें पूछीं। कुलीनग्रामवासी प्रभु के आज्ञानुसार प्रतिवर्ष जगन्नाथ जी के लिये पट्टडोरी लाया करते थे। वे प्रतिवर्ष महाप्रभु से वैष्णव के लक्षण पूछते। पहले वर्ष पूछने पर प्रभु ने बताया था- 'जिसके मुख से एक बार भी भगवन्नाम का उच्चारण करता हो गया वही वैष्णव है।'
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दूसरे वर्ष पूछने पर आपने कहा- 'जो निरन्तर भगवान के नामों का उच्चारण करता रहे वही वैष्णव है।' तीसरी बार फिर वैष्णव की परिभाषा पूछने पर प्रभु ने कहा- 'जिसे देखते ही लोगों के मुखों में से स्वतः ही श्रीहरि के नामों का उच्चारण होने लगे वही वैष्णव है।' इस प्रकार तीन वर्षों में प्रभु ने वैष्णव, वैष्णवतर और वैष्णवतम तीन प्रकार के भक्तों का तत्त्व बताया। महाप्रभु ने सभी को उपदेश किया कि वे वैष्णवमात्र के प्रति श्रद्धा के भाव रखें। वैष्णव चाहे कैसा भी क्यों न हो, वह पूजनीय ही है।
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इस प्रकार जिसने भी जो प्रश्न पूछा उसी का प्रभु ने उत्तर दिया। अद्वैताचार्य को भक्तों की देख-रेख करते रहने के लिये प्रभु ने फिर से उन्हें सचेष्ट किया। भक्तों को नवद्वीप से नीलाचल लाने और रास्ते में उनके सभी प्रकार के प्रबन्ध करने का भार प्रभु ने शिवानन्द सेन के ऊपर दिया था। उन्हें फिर से प्रभु ने समझाया कि सभी को खूब सावधानीपूर्वक लाया करें।
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नित्यानन्द जी से प्रभु ने निवेदन किया- 'श्रीपाद ! आप प्रतिवर्ष नीलाचल न आया करें। वहीं रहकर संकीर्तन का प्रचार किया करें।' इस प्रकार सभी को समझा-बुझाकर प्रभुने विदा किया। सभी रोते-रोते प्रभुको प्रणाम करके गौड़-देश की ओर चले गये। केवल पुण्डरीक विद्यानिधि कुछ कालतक महाप्रभु के साथ पुरी में ही और रहना चाहते थे, इसलिये प्रभु उनके साथ अपने स्थान पर लौट आये।
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विद्यानिधि को प्रभु-प्रेमके कारण 'प्रेमनिधि' के नाम से सम्बोधन किया करते थे। उनकी स्वरूपदामोदरके साथ बहुत अधिक प्रगाढ़ता हो गयी थी। गदाधर इनके मंत्र-शिष्य थे ही, इसीलिये वे इनकी सेवा-शुश्रूषा करने लगे। क्वारके बाद शीतकी जो पहली षष्ठी होती है, उसे 'ओढ़नषष्ठी कहते हैं। उस दिन जगन्नाथ को सर्दी के वस्त्र उढ़ाये जाते हैं।
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उस दिन भगवान के शरीर पर बिना धुले हुए माड़ी लगे हुए वस्त्रोंको देखकर विद्यानिधि को बड़ी घृणा हुई। उसी दिन रात्रि में भगवान ने बलराम जी के सहित हंसते-हंसते इनके कोमल गालों पर खूब चपतें जमायीं। जागने पर इन्होंने देखा कि सचमुच इनके गाल फूले हुए हैं, इससे इन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। महाप्रभु इनके और स्वरूपद मोदर के साथ कृष्ण-कथा कहने-सुनने में सबसे अधिक आनन्द का अनुभव करते थे। कुछ काल में अनन्तर महाप्रभु की आज्ञा लेकर ये अपने स्थान के लिये लौट आये।
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इसी प्रकार चार वर्षों तक भक्त महाप्रभु के पास प्रतिवर्ष रथ-यात्रा के समय बराबर आते रहे। पाँचवें वर्ष प्रभु ने भक्तों से कह दिया कि अबके हम स्वयं ही वृन्दावन जाने की इच्छा से गौड़-देश में आकर जननी और जन्म-भूमि के दर्शन करेंगे। अबके आपलोग न आवें। इस बात से सभी भक्तों को बड़ी भारी प्रसन्नता हुई। महाप्रभु जब से दक्षिण की यात्रा समाप्त करके आये थे, तभी से वृन्दावन जाने के लिये सोच रहे थे, किन्तु रामानन्द जी, सार्वभौम तथा महाराज प्रतापरुद्र जी के अत्यधिक आग्रह के कारण अभी तक न जा सके।
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अब उनकी वृन्दावन जाने की प्रबल हो उठी। इससे पुरी-निवासी भक्तों ने भी इन्हें अधिक विवश करना नहीं चाहा। दुःखित मन से उन्होंने प्रभु को वृन्दावन जानेकी सम्मति दे दी। अब महाप्रभु वृन्दावन जाकर अपने प्यारे श्रीकृष्ण की लीलास्थली के दर्शनों के लिये बहुत अधिक उत्सुकता प्रकट करने लगे। वे वृन्दावन जाने की तैयारियाँ करने लगे।
(क्रमशः)

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