शुक्रवार, 8 मई 2020

*१२५. प्रकाशानन्द जी के साथ पत्र-व्यवहार*

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*तब हंसा मन आनंद होइ,*
*वस्तु अगोचर लखै रे सोइ ।*
*जा को हरि लखावै आप,*
*ताहि न लिपैं पुन्य न पाप ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद. ४०५)*
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साभार ~ @Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*१२५. प्रकाशानन्द जी के साथ पत्र-व्यवहार*
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'गोकुल गांव को पैंडो ही न्यारो' प्रेमियों की मथुरा तो तीन लोकों से न्यारी ही है। प्रकाशानन्द जी ने नियमों की कठोरता दिखाते हुए भर्तृहरिशतक के श्रृंगारश तक का निम्नलिखित श्लोक लिखकर प्रभु के पास भेजा-
विश्वामित्रपराशरप्रभृतयो वाताम्बुपर्णाशना-
स्तेऽपि स्त्रीमुखपंकजं सुललितं दृष्टैव मोहं गताः।
शाल्यन्नं सघ्तं पयोदधियुतं भुंजन्ति ये मानवा-
स्तेषामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेद् विन्ध्यस्तरेत् सागरम्॥
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इसका भाव यह है कि विश्वामित्र, पराशर प्रभृति ऋषि-महर्षि सहस्रों वर्षपर्यन्त वायु भक्षण करके तथा सूखे पत्ते खाकर घोर तप करते रहे, इतने पर भी वे स्त्री के कमलरूपी मनोहर मुख को देखकर मोहित हो गये। जब इतने-इतने बड़े संयम करने वाले महर्षियों की यह दशा है, तो नित्यप्रति बढ़िया चावल, दूध, दही, घृत तथा इनके बने हुए भाँति-भाँति के पदार्थों को रोज ही खाते हैं, उनकी इन्द्रियों को यदि वश में रहना सम्भव है तो विन्ध्याचल पर्वत का भी समुद्र के ऊपर तैरते रहना सम्भव हो सकता है।
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अर्थात ऐसे पदार्थों को खाकर इन्द्रियों को संयम करना असम्भव है। महाप्रभु ने इस श्लोक को पढ़ा, पढ़ते ही उन्हें कुछ लज्जा-सी आयी और विरक्तभाव से उन्हें यह पत्र स्वरूपदामोदर के हाथ में दे दिया। स्वरूपदामोदर जी ने कुछ रोष के स्वर में कहा- 'मैं इसका अभी उत्तर देता हूँ।'
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महाप्रभु ने अत्यन्त ही सरलता से कहा- 'इसका उत्तर हो ही क्या सकता है? गाली का उत्तर गाली ही हो सकती है और विवेकी पुरुष गाली देना उचित नहीं समझते। इसीलिये वे दूसरों की गाली सुनकर मौन ही रह जाते हैं। वे कैसी भी गाली का उत्तर नहीं देते। इसलिये अब इसका उत्तर देने की कोई आवश्यकता नहीं है। बात ठीक ही है। इन्द्रियाँ बड़ी बलवान होती हैं, वे विद्वानों को भी अपनी ओर खींच लेती हैं।'
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महाप्रभु की आज्ञा से उस समय तो सभी भक्त चुप रह गये, किन्तु सभी में महाप्रभु के समान सहनशीलता नहीं हो सकती। इसलिये भक्तों ने प्रभु के परीक्षा में नीचे का श्लोक लिखकर प्रकाशानन्द जी के पास इस श्लोक का उत्तर भेज दिया-
सिंहो बली द्विरदशूकरमांसभोजी
संवत्सरेण कुरुते रतिमेकवारम्।
पारावतस्तृणशिखाकणमात्रभोगी
कामी भेवदनुदिनं वद कोऽत्र हेतुः॥
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अर्थात 'महाबली सिंह शूकर और हाथियों का पुष्टकारी मांस ही खाता है फिर भी वर्षभर में केवल एक ही बार काम-क्रीड़ा करता है। (किसी-किसी का कथन है कि सिंह सम्पूर्ण आयु में एक ही बार रति करता है।)इसके विपरीत कपोत साधारण तृणों के अग्रभाग तथा कंकड़ आदि को ही खाकर जीवन-निर्वाह करता है, फिर भी नित्यप्रति काम-क्रीड़ा करता है! (कपोत के समान कामी पक्षी दूसरा कोई है ही नहीं, वह दिन में अनेकों बार रति करता है।) यदि भोजन ही ऊपर कामी होना और न होना अवलम्बित हो तो बताओ इस बैषम्य का क्या कारण है?'
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पता नहीं इस श्लोक का श्रीपाद प्रकाशानन्द जी पर क्या असर हुआ, किन्तु इसके बाद फिर पत्र-व्यवहार बन्द ही हो गया। सार्वभौम भट्टाचार्य ने महाप्रभु से आज्ञा माँगी कि हमें काशी जाने की आज्ञा दीजिये। हम वहाँ प्रकाशानन्द जी को शास्त्रार्थ में पराजित करके उन्हें भक्ति तत्त्व समझा आवेंगे।
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महाप्रभु को शास्त्रार्थ और जय-पराजय ये सांसारिक प्रतिष्ठा के कार्य पसंद नहीं थे। भगवद्-भक्त किसे पराजित करें। सभी तो उसके इष्टदेव के स्वरूप हैं। इसलिये सभी को 'सीयराम' समझकर वह हाथ जोड़े हुए प्रणाम करता है-
सीय राममय सब जग जानी।
करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥
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किन्तु सार्वभौम कैसे भी भक्त सही, उन्हें अपने शास्त्र का कुछ-न-कुछ थोड़ा-बहुत अभिमान तो था ही। भक्तों के सामने वह दबा रहता था और अभिमानियों के सम्मुख प्रस्फुटित हो जाता था। महाप्रभु के मने करने पर भी उन्होंने काशी जाने के लिये प्रभु से आग्रह किया।
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महाप्रभु ने उनकी उत्कट इच्छा देखकर काशी जी जाने की आज्ञा दे दी। ये काशी गये भी। किन्तु वहाँ से जैसे गये थे वैसे ही लौट आये, न तो वे महामहिम प्रकाशानन्द जी को शास्त्रार्थ में पराजित ही कर सके और न उन्हें ज्ञानी से भक्त ही बना सके। इससे वे कुछ लज्जित भी हुए और महाप्रभु के सामने आने से संकोच करने लगे।
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तब महाप्रभु स्वयं उनसे जाकर मिले और उन्हें सान्त्वना देते हुए कहने लगे- 'आपका कार्य बड़ा ही स्तुत्य था। भक्तिविहीन जीवों को भक्ति-मार्ग में लाने की इच्छा किसी भाग्यशाली महापुरुष के ही हृदयमें होती है।' महाप्रभु के इन सान्त्वनापूर्ण वाक्यों से सार्वभौम की लज्जा कुछ कम हुई। इस घटना के अनन्तर उनका प्रेम महाप्रभु के चरणों में और भी अधिक बढ़ गया।
(साभार)

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