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*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग सारंग १५ (गायन समय मध्य दिन)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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२६७ - माया मध्य मुक्ति । त्रिताल
ऐसे गृह में क्यों न रहे, मनसा वाचा राम कहै ॥टेक॥
सँपति विपति नहीं मैं मेरा, हर्ष शोक दोउ नाँहीं ।
राग द्वेष रहित सुख दुख तैं, बैठा हरि पद माँहीं ॥१॥
तन धन माया मोह न बांधे, वैरी मीत न कोई ।
आपा पर सम रहे निरँतर, निज जन सेवक सोई ॥२॥
सरवर कमल रहे जल जैसे, दधि मथ घृत कर लीन्हा ।
जैसे वन में रहे बटाऊ, काहू हेत न कीन्हा ॥३॥
भाव भक्ति रहे रस माता, प्रेम मगन गुण भावै ।
जीवित मुक्त होइ जन दादू, अमर अभय पद पावै ॥४॥
जिस ज्ञान रूप घर में रहने से सँत माया में रहते हुये भी मुक्त रहता है, उसमें रहने की प्रेरणा कर रहे हैं - अरे ! मन, वचन से राम का भजन करते हुये ज्ञान रूप ऐसे घर में क्यों नहीं रहता ?
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जिसमें सँपत्ति - विपत्ति, मैं - मेरा, हर्ष - शोक दोनों ही नहीं हैं, जो राग - द्वेष तथा वस्तु - जन्य सुख और दुख से रहित है, जिसमें रहने से हरि - स्वरूप में स्थिति रहती है ।
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शरीर - धनादिक मायिक मोह नहीं बाँध सकते, न कोई शत्रु मित्र ही भासते । अपने पराये में निरँतर समता रहती है । उस घर में जो रहता है, वह जन भगवान् का निज सेवक कहलाता है ।
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जैसे कमल सरोवर के जल में रहते हुये भी ऊपर रहता है और मँथन करके दही से निकाला हुआ मक्खन छाछ में नहीं मिलता, वैसे ही सँसार में मन नहीं मिलता । जैसे वन में विश्राम करने वाला पथिक वन के वृक्षादिक से प्रेम करके वहां ठहरता नहीं, अपने मार्ग पर चल पड़ता है, वैसे ही उसका किसी से राग नहीं होता ।
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श्रद्धा भक्ति द्वारा ब्रह्म रस में मस्त रहता है । इस प्रकार भक्त - जन प्रेम में निमग्न होकर प्रभु के गुण गायन करते हुये अमर अभय पद प्राप्त करके जीवन्मुक्त हुये रहते हैं ।
(क्रमशः)
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