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*शब्द सूई सुरति धागा, काया कंथा लाइ ।*
*दादू जोगी जुग जुग पहिरै, कबहूँ फाट न जाइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*साँच चाणक का अंग १२१*
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प्राणी पातर१ लोह के, काव्य सु कली चढाय ।
कसत२ घसत सो ऊघड़ै३, गत४ वित५ दृग दर्शाय ॥१३॥
लोह पात्र१ पर कली चढाई जाती है वह घिसते घिसते उतर कर लोहा निकल३ आता है, जिसका धन४ चला५ जाता है, उसके चिन्ह नेत्रों में दीख जाते हैं, वैसे ही प्राणी पर सुन्दर काव्य का जो प्रभाव होता है अर्थात अच्छे वचन बोलता है, अच्छा दीखता है, वह कुछ कष्ट२ देने पर जैसा होता है वैसा प्रकट हो जाता है ।
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रज्जब नाम सु पानों मुख रँग्या, पै मन लाल न होय ।
तब लग रत्त१ अरत्त है, समझा समझै कोय ॥१४॥
पान से मुख तो रंग जाता है किन्तु मन तो लाल नहीं होता, वैसे ही मुख से नाम तो उच्चारण होता है किन्तु मन में तो नाम नहीं रहता, जब तक मन में प्रेम१ नहीं है तब तक वह प्रेम रहित ही है, इस रहस्य को समझा हुआ संत ही समझता है ।
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वाणी रंग१ बेचैं बहुत, पै प्राण२ रंग्या नहिं जाय ।
तब लग रहते रंग में, रज्जब कहां समाय३ ॥१५॥
वाणी के प्रेम को तो बहुत बेचते हैं अर्थात प्रेम१ का उपदेश तो बहुत करते हैं किन्तु उससे मन२ तो नहीं रंगा जाता, जब तक वाणी द्वारा उपदेश करते हैं, तब तक प्रेम में रहते हैं फिर उनमें भी प्रेम कहां रहता३ है ?
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इक वक्ता है सुई सम, इक श्रोता सम ताग ।
रज्जब बागा१ बंदगी, लागि रहै तिहिं भाग ॥१६॥
वक्ता तो सुई के समान है और श्रोता धागे के समान है किन्तु जो सुई-धागा अंगरखा१(वस्त्र) में जाता है वही श्रेष्ठ है, वैसे ही जो वक्ता - श्रोता भक्ति में लगा रहता है उसी का विशाल भाग्य माना जाता है ।
(क्रमशः)
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