मंगलवार, 9 जून 2020

*५. परचा कौ अंग ~ २५/२८*


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*पंडित श्री जगजीवनदास जी की अनभै वाणी*
*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*५. परचा कौ अंग ~ २५/२८*
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जगजीवन जहां जात है, लोक वेद कों त्यागि ।
सो घर घर ही माँहि है, लागि सकै तो लागि ॥२५॥ 
संतजगजीवन जी कहते हैं कि, हे जीव तू जहाँ संसार व वेदों में सब कुछ छोड़ कर उसे ढूढंने निकला है, वह प्रभु तो तेरे अतंर में ही है अगर प्रयत्न कर पा सके तो पा ले।
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तेज पुंज ह्वै जाइ तन, मन मनसा मिलि मांहि ।
कहि जगजीवन हरि भगत, (तोउ) सुमिरन भूलै नांहि ॥२६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो देह तेजोमय है व जिसका मन मनसा को वश में रखे हुए हैं, ऐसै प्रभु प्रेमी कभी भी स्मरण नहीं भूलते।
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तेज पुंज हरि निरंजन, अंजन परसै ताहि ।
कहि जगजीवन एक रस, रांम ह्रिदै लिव२ लाइ ॥२७॥
{२. लिव-लय(एकाग्रता)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि परमात्मा तेजोमय हैं। वे किसी में भी लिप्त नहीं है। हे जीव, एकाग्र होकर पूर्ण रूप से अपनी सारी तन्मयता उनमें ही लगा।
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तेज पुंज की देह मंहि, तेज पुंज हरि जांण ।
तेज पुंज थैं ऊपज्या, सो निज तेज पिछांण ॥२८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि इस परम प्रकाश की देह में उन परमात्मा के तेजोमय स्वरूप को जान । जिस तेज पुंज से तेरा जन्म हुआ है, तुझमें स्थित उसी तेजोमय परमात्मा को पहचान।
(क्रमशः)

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