सोमवार, 8 जून 2020

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*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द* 
*राग सोरठ १९(गायन समय रात्रि ९ से १२)* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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२९८ - स्मरण । उत्सव ताल
कोली साल न छाड़ै रे, सब घावर१ काढै रे ॥टेक॥
प्रेम पाण लगाई धागे, तत्व ते निज दीया ।
एक मना इस आरम्भ लागा, ज्ञान राछ२ भर लीया ॥१॥
नाम नली भर बुणकर लागा, अंतर गति रंग राता ।
तांणैं बांणैं जीव जुलाहा, परम तत्व सौं माता ॥२॥
सकल शिरोमणि बुनै विचारा, सान्हा३ सूत न तोड़ै ।
सदा सचेत रहे ल्यौ लागा, ज्यों टूटै त्यों जोड़ै ॥३॥
ऐसे तनि बुनि गहर गजीना४, सांई के मन भावै ।
दादू कोली करता के संग, बहुरि न इहि जग आवै ॥४॥
जुलाहा और खद्दर के रूपक द्वारा साधक के ब्रह्म भजन तथा ब्रह्म प्राप्ति का परिचय दे रहे हैं - साधक - जीव - जुलाहा ब्रह्म - भजन रूप पट बुनने के हृदय स्थान को नहीं छोड़ता । वृत्ति धागे से मल विक्षेपादि सम्पूर्ण दोष१ निकाल देता है ...
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और उस धागे में प्रभु प्रेम रूप पाण लगाता है । तत्व विचार रूप के द्वारा प्रकाशित उन साक्षी रूप दीपक के सत्ता प्रकाश का आश्रय लेकर एकाग्र मन से इस ब्रह्म - भजन पट को बुनना आरम्भ करता है । ज्ञान रूप अच्छे औजार२ लेता है, 
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तथा नाम - नलिका में वृत्ति - धागा भरता है अर्थात् नामाकार वृत्ति रखता है । इस प्रकार नलिका भरकर पट बुनने लगता है और भीतर प्रभु - प्रेम रँग में अनुरक्त रहता है । यह जीव - जुलाहा वृत्ति - सूत्र को परम तत्व रूप ताने - बाने में लगाते हुये मस्त रहता है । 
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यह विनम्र जीव - जुलाहा वृत्ति सूत्र को ब्रह्म - भजन - पट में संलग्न३ करके तोड़ता नहीं, सर्व शिरोमणि पट बुनता है । सदा सावधान हो वृत्ति को ब्रह्म - भजन में लगावे रहता है । किसी कारण से वृत्ति टूट जाय तो ज्यों टूटती है, त्यों ही शीघ्र जोड़ देता है । 
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उक्त प्रकार ताने बाने द्वारा बहुत गाढ़ा ब्रह्म - भजन रूप खद्दर४ बुन के तैयार करता है, तब ब्रह्म के मन को वह प्रिय लगता है और ऐसे पट को बुनने वाला जीव - जुलाहा अभेद रूप से ब्रह्म के संग ही रहता है, पुन: जन्म लेकर सँसार में नहीं आता ।
(क्रमशः)

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