मंगलवार, 9 जून 2020

साच का अंग ९५/९९

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १३. साच का अंग)
*सब हम देख्या सोध कर, वेद कुरानों माँहि ।*
*जहाँ निरंजन पाइये, सो देश दूर, इत नांहि ॥९५॥*
जिस निर्विकल्प समाधि में ब्रह्म की प्राप्ति होती है वह समाधि देश वेद शास्त्रों के पढ़ने से नहीं मिल सकता, किन्तु अभ्यास वैराग्यादि साधन संपत्ति से ही लभ्य है । केवल ज्ञान कथन से नहीं ।
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*पढ पढ थाके पंडिता, किनहूँ न पाया पार ।*
*कथ कथ थाके मुनिजना, दादू नाम अधार ॥९६॥*
*काजी कजा न जानहीं, कागद हाथ कतेब ।*
*पढतां पढतां दिन गये, भीतर नांहि भेद ॥९७॥*
हे काजी ! पढ पढ कर आयु क्षीण कर दी, मृत्यु भी पास ही आ गई । लेकिन तुम ने अब तक भी परमात्मा का रहस्य नहीं जान पाया, तो फिर हाथों में इतने पुस्तकों के भार को धारण करने का क्या प्रयोजन है तथा पढ़ने से भी क्या लाभ है ।
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*मसि कागज के आसरे, क्यों छूटै संसार ? *
*राम बिना छूटै नहीं, दादू भ्रम विकार ॥९८॥*
हे काजी ! स्याही से लिखी हुई और कागज से बनी हुई पुस्तक के पढ़ने मात्र से कोई भी संसार बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता और रामभक्ति के बिना कामादि विकार और भ्रम की निवृत्ति नहीं हो सकती । अतः भगवान् का भजन ही करना चाहिये ।
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*कागद काले कर मुए, केते वेद पुराण ।*
*एकै अक्षर पीव का, दादू पढै सुजान ॥९९॥*
कितने ही विद्वान् वेद शास्त्र पुराणों की टीका भाष्य आदि रचकर मृत्यु को प्राप्त हो गये । इन ग्रन्थों की रचना से कोई मुक्त तो नहीं हुआ । किन्तु एक अक्षर स्वरूप राम नाम को जप करके तो कितने ही भक्त मुक्त हो गये ।
(क्रमशः)

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