सोमवार, 22 जून 2020

*५. परचा कौ अंग ~ ७३/७६*

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*पंडित श्री जगजीवनदास जी की अनभै वाणी*
*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*५. परचा कौ अंग ~ ७३/७६*
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सब गुण नांम समीप्य१ लहै, बिरह प्रेम सारूप२ ।
कहि जगजीवन सालोक३ हरि, सायुज४ अलख अनूप ॥७३॥
(१. समीप्य=सामीप्य-महत् तत्त्व की उपासना । 
२. सारूप=सारूप्य-अव्याकृत अभेद वृत्ति से भागवदुपासना । 
३. सालोक=सालोक्य-स्वकीय अहं के अस्तित्व सहित वृत्ति से भगवदुपासना । 
४. सायुज=सायुज्य-विराट् की उपासना ।)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सब महिमा में प्रभु गुणानुवाद है और विरह में प्रभु साकार हैं । संत कहते हैं कि प्रभु स्वयं प्रेरित कर भगवद्धर्शन द्वारा उपासना की और ग्रसर करते हैं, जो कि विराट स्वरूप में है ।
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चार्यों आगै भगति हरि५, अविगत भाव अगाध ।
कहि जगजीवन पंच ले, सहज समांवै साध ॥७४॥
(५. भगति हरि-अविगत भाव से निराकार निरंजन की उपासना । इस प्रकार महात्मा जगजीवनदास जी ने पञ्चविध भक्ति मानी हैं ।)
संतजगजीवन जी कहते हैं, कि चारों प्रकार की भक्ति जैसे आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी, व ज्ञानी इन सब में से किसी पथ पर चले तो जो आगे प्राप्य है वे प्रभु ही हैं । अतः संत अपनी पांचों ज्ञानेन्द्रियाँ उस और उन्मुख सहज समाधि में रहते हैँ ।
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तुम हरि दाता भोकता६, तुमहि समरपन भाइ ।
कहि जगजीवन रांमजी, अलख अरोगौ आइ ॥७५॥
{६. भोकता-भोक्ता(सांसारिक पदार्थों का उपभोग करने वाला)} 
संतजगजीवन जी कहते हैं कि, हे प्रभु आप ही देने वाले दाता हैं, आप ही उसका उपभोग कराते हैं, सब आपको ही समर्पण है आप इसे स्वीकार करें ।
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जूंठण जन राचै रुचै, न्रिपत पंच भू होइ ।
कहि जगजीवन रांमजी, करि प्रसाद द्यौ मोहि ॥७६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि, हे जीव त्यक्त में आसक्त मत हो, तुम तो पंच महाभूतों वाले राजा हो । पंच महाभूत हैं धरती, आकाश, जल, वायु, अग्नि । संत कहते हैं कि, हे प्रभु आप सदय होकर मुझे कृपा रुपी प्रसाद देवें ।
(क्रमशः)

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