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*मनसा के पकवान सौं, क्यों पेट भरावै ।*
*ज्यों कहिये त्यों कीजिये, तब ही बन आवै ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*साँच चाणक का अंग १२१*
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रज्जब वरणै बैन१ वपु, जप जीवन नहिं जान ।
मानहु ग्राहज२ गहन३ गति४, गहै न शाशिहर५ भान६ ॥६१॥
शरीर के द्वारा वचनों१ का वर्णन ही करता है किन्त जीवन रूप ब्रह्म चिन्तन करना नहीं जानता, उसे ऐसा मानना चाहिये जैसे ज्योतिष ग्रहण के उत्पन्न२ ग्रहण३ की चेष्टा४ को तो जान लेता किन्तु चन्द्र५-सूर्य६ को नहीं पकड़ सकता ।
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ब्रह्माण्ड पिंड को व्यौर१ ही, बातों करि सुविशेख ।
रज्जब बोले बोध बल, विरला कहसी देख२ ॥६२॥
बहुत सी विशेष विशेष बातें करके ब्रह्माण्ड और शरीर का वर्णन१ करते हैं, शास्त्र ज्ञान के बल से बोलते हैं किन्तु अनुभव२ करके तो कोई विरला ही कहेगा ।
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रज्जब आई बात में, हाथ माँहिं निधि१ नाँहि ।
सो रीता२ सुन ॠद्धि बिन, समझ देख मन माँहिं ॥६३॥
जैसे किसी के बातों में तो खजाना१ आ गया है किन्तु हाथ में नहीं आया, जब तक हाथ में न आये तब तक वह खाली२ ही है, वैसे ही मन में समझ कर देखो, यदि ज्ञान बातों में ही आया है और अंत:करण में ज्ञान के अनुसार धारणा नहीं है तो वह ज्ञान से खाली ही है ।
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रज्जब पारस चित्र का, मांड्या१ सोवन२ मेर३ ।
त्यों कथणी करणी बिना, हाथ चढे क्या हेर४ ॥६४॥
देखो४, चित्र में लिखा१ हुआ पारस और सुवर्ण२ का पर्वत३ देखने मात्र का ही होता है, हाथ क्या आता है ? वैसा ही कर्त्तव्य बिना का कथन है, उससे पारमार्थिक लाभ कुछ नहीं होता ।
(क्रमशः)
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