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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १३. साँच का अंग)
.
*साच अमर जुग जुग रहै, दादू विरला कोइ ।*
*झूठ बहुत संसार में, उत्पत्ति परलै होइ ॥१५२॥*
इस संसार में मिथ्या भ्रान्ति से भ्रान्त मिथ्यावादी उत्पन्न विनाशशील पुरुष तो बहुत दीखते हैं । किन्तु अपनी सत्ता से सबको व्याप्त करने वाले ब्रह्म में निष्ठ तथा ब्रह्म को जानने वाला कोई ही होता है ।
.
*दादू झूठा बदलिये, साच न बदल्या जाइ ।*
*साचा सिर पर राखिये, साध कहै समझाइ ॥१५३॥*
यह संसार मायिक होने के कारण परिवर्तनशील है और ब्रह्म नित्य एक रस है । अतः उसकी ही उपासना करनी चाहिये । ऐसा संत कहते हैं ।
.
*साच न सूझै जब लगै, तब लग लोचन अंध ।*
*दादू मुक्ता छाड़ कर, गल में घाल्या फंद ॥१५४॥*
जब तक शुद्ध ब्रह्म को नहीं जान लेता तब तक यह जीव ज्ञानाभाव के कारण अन्धे के सदृश ही है और सकाम कर्मों से बंधा हुआ इस संसार में भटकता रहता है । कभी भी मुक्त नहीं होता ।
.
*साच न सूझै जब लगै, तब लग लोचन नांहि ।*
*दादू निर्बंध छाड़ कर, बंध्या द्वै पख माँहि ॥१५५॥*
जब तक साधक आत्म तत्त्व को नहीं जान लेता तब तक वह अन्धा ही कहलाता है । अज्ञान के कर्ण गन्दे भोग और उन भोगों के साधन में अनुरक्त होकर परमात्मा को त्यागकर द्वैत अद्वैत के पक्षों के विवाद में पड़ा हुआ केवल क्लेश ही पाता है ।
(क्रमशः)
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साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १३. साँच का अंग)
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*साच अमर जुग जुग रहै, दादू विरला कोइ ।*
*झूठ बहुत संसार में, उत्पत्ति परलै होइ ॥१५२॥*
इस संसार में मिथ्या भ्रान्ति से भ्रान्त मिथ्यावादी उत्पन्न विनाशशील पुरुष तो बहुत दीखते हैं । किन्तु अपनी सत्ता से सबको व्याप्त करने वाले ब्रह्म में निष्ठ तथा ब्रह्म को जानने वाला कोई ही होता है ।
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*दादू झूठा बदलिये, साच न बदल्या जाइ ।*
*साचा सिर पर राखिये, साध कहै समझाइ ॥१५३॥*
यह संसार मायिक होने के कारण परिवर्तनशील है और ब्रह्म नित्य एक रस है । अतः उसकी ही उपासना करनी चाहिये । ऐसा संत कहते हैं ।
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*साच न सूझै जब लगै, तब लग लोचन अंध ।*
*दादू मुक्ता छाड़ कर, गल में घाल्या फंद ॥१५४॥*
जब तक शुद्ध ब्रह्म को नहीं जान लेता तब तक यह जीव ज्ञानाभाव के कारण अन्धे के सदृश ही है और सकाम कर्मों से बंधा हुआ इस संसार में भटकता रहता है । कभी भी मुक्त नहीं होता ।
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*साच न सूझै जब लगै, तब लग लोचन नांहि ।*
*दादू निर्बंध छाड़ कर, बंध्या द्वै पख माँहि ॥१५५॥*
जब तक साधक आत्म तत्त्व को नहीं जान लेता तब तक वह अन्धा ही कहलाता है । अज्ञान के कर्ण गन्दे भोग और उन भोगों के साधन में अनुरक्त होकर परमात्मा को त्यागकर द्वैत अद्वैत के पक्षों के विवाद में पड़ा हुआ केवल क्लेश ही पाता है ।
(क्रमशः)
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