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*सुन्दरी मोहे पीव को, बहुत भाँति भरतार ।*
*त्यों दादू रिझवै राम को, अनन्त कला करतार ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ सुंदरी का अंग)*
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*साभार ~ श्रीरामकृष्ण-वचनामृत{श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)}*
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*भक्तों के साथ कीर्तनानन्द । समाधि में*
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अब संकीर्तन होगा । मृदंग बजाया जा रहा है । गोष्ठ मृदंग बजा रहा है । अभी गाना शुरू नहीं हुआ । मृदंग का मधुर वाद्य गौरांगमण्डल और उनके नामसंकीर्तन की याद दिलाकर मन को उद्दीप्त करता है । श्रीरामकृष्ण भाव में मग्न हो रहे हैं । रह-रहकर मृदंगवादक पर दृष्टि डालकर कह रहे हैं- “अहा ! मुझे रोमांच हो रहा है !”
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गवैयों ने पूछा, “कैसा पद गाएँ?” श्रीरामकृष्ण ने विनीत भाव से कहा, “जरा गौरांग के कीर्तन गाओ ।”
कीर्तन आरम्भ हो गया । पहले गौरचन्द्रिका होगी, फिर दूसरे गाने ।
कीर्तन में गौरांग के रूप का वर्णन हो रहा है । कीर्तन-गवैये अन्तरों में चुन-चुनकर अच्छे पद जोड़ते हुए गा रहे हैं – “सखि, मैंने पूर्णचन्द्र देखा”, “न ह्लास है – न मृगांक”, “हृदय को आलोकित करता है ।”
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गवैयों ने फिर गाया- “कोटि चन्द्र के अमृत से उसका मुख धुला हुआ है ।”
श्रीरामकृष्ण यह सुनते ही सुनते समाधिमग्न हो गए ।
गाना होता ही रहा । कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण की समाधि छूटी । वे भाव में मग्न होकर एकाएक उठकर खड़े हो गए तथा प्रेमोन्मत्त गोपिकाओं की तरह श्रीकृष्ण के रूप का वर्णन करते हुए कीर्तन-गवैयों के साथ साथ गाने लगे – “सखि ! रूप का दोष है या मन का?” “दूसरों को देखती हुई तीनों लोक में श्याम ही श्याम देखती हूँ ।”
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श्रीरामकृष्ण नाचते हुए गा रहे हैं । भक्तगण निर्वाक् होकर देख रहे हैं । गवैये फिर गा रहे हैं, - गोपिका की उक्ति – “बंसी री ! तू अब न बज । क्या तुझे नींद भी नहीं आती?” इसमें पद जोड़कर गा रहे हैं – “और नींद आए भी कैसे !” – “सेज तो करपल्लव है न?” _ “श्रीमुख के अमृत का पान करती है” _ “तिस पर उँगलियाँ सेवा करती हैं ।”
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श्रीरामकृष्ण ने आसन ग्रहण किया । कीर्तन होता रहा । श्रीमती राधा की उक्ति गायी जाने लगी । वे कहती हैं – “दृष्टि, श्रवण और प्राण की शक्ति तो चली गयी – सभी इन्द्रियों ने उत्तर दे दिया, तो मैं ही अकेली क्यों रह गयी ?”
अन्त में श्रीराधा-कृष्ण दोनों के एक दूसरे से मिलन का कीर्तन होने लगा-
“राधिकाजी श्रीकृष्ण को पहनाने के लिए माला गूँथ ही रही थी कि अचानक श्रीकृष्ण उनके सामने आकर खड़े हो गए ।”
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युगल-मिलन के संगीत का आशय यह है-
“कुंजवान में श्याम-विनोदिनी राधिका कृष्ण के भावावेश में विभोर हो रही है । दोनों में से न तो किसी के रूप की उपमा हो सकती है और न किसी के प्रेम की ही सीमा है । आधे में सुनहली किरणों की छटा है और आधे में नीलकान्त मणि की ज्योति । गले के आधे हिस्से में वन के फूलों की माला है और आधे में गज-मुक्ता । कानों के अर्धभाग में मकरकुण्डल हैं औए अर्धभाग में रत्नों की छबि । अर्धललाट में चन्द्रोदय हो रहा है । और आधे में सूर्योदय । मस्तक के अर्धभाग में मयूरशिखण्ड शोभा पा रहा है और आधे में वेणी । कनककमल झिलमिला रहे हैं, फणी मानो मणि उगल रहा है ।”
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कीर्तन बन्द हुआ । श्रीरामकृष्ण ‘भागवत, भक्त, भगवान्’ इस मन्त्र का बार बार उच्चारण करते हुए भूमिष्ठ हो प्रणाम कर रहे हैं । चारों ओर के भक्तों को उद्देश्य करके प्रणाम कर रहे हैं और संकीर्तन-भूमि की धूलि लेकर अपने मस्तक पर रख रहे हैं ।
(क्रमशः)
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