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#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका, भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १३. साँच का अंग)
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*॥ सज्जन दुर्जन ॥*
*जे पहुँचे ते कह गए, तिनकी एकै बात ।*
*सबै सयाने एक मत, उनकी एकै जात ॥१७४॥*
*जे पहुँचे तेहि पूछिये, तिनकी एकै बात ।*
*सब साधों का एक मत, ये बिच के बारह बाट ॥१७५॥*
*सबै सयाने कह गये, पहुँचे का घर एक ।*
*दादू मार्ग माहिं ले, तिन की बात अनेक ॥१७६॥*
जिन्होंने ब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया ऐसे जो महात्मा हैं, उन सबका एक ही मार्ग एक ही बात एक ही सिद्धांत होने से वे सब भी एक ही हैं । वे कभी भी ब्रह्म के विषय में विवाद नहीं करते । क्योंकि उन्होंने ब्रह्म के स्वरूप को जान लिया । जिन्होंने आज तक उस ब्रह्म को नहीं जाना और अभी रास्ते पर ही चल रहे हैं । वे ब्रह्म और उसके मार्ग में तथा ब्रह्मज्ञान के फल के विषय में विवाद करते रहते हैं । उनसे ब्रह्म के विषय में कोई प्रश्न नहीं करना चाहिये क्योंकि उनका जो निर्णय होगा वह शास्त्रसंमत नहीं होगा ।
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*सूरज साखी भूत है, साच करै परकास ।*
*चोर डरै चोरी करै, रैन तिमिर का नाश ॥१७७॥*
जो ज्ञानी पुरुष हैं, वे सूर्य की तरह सब के साक्षी स्वरूप होते हैं । अज्ञान से उत्पन्न तापत्रयरूप आदि के दाह का नाश करने के लिये चन्द्रमा के सामने शीतल होते हैं । अज्ञानरूपी अन्धकार तथा अज्ञानजन्य संशयविपर्य तथा सब दुःखों को दूर करने में सूर्य की तरह तम के नाश में सक्षम होते हैं । परन्तु अज्ञानी लोग अपने अज्ञान का नाश नहीं चाहते, जैसे चोर रात्रि के अन्धेरे का नाश नहीं चाहता ।
योगवासिष्ठ में ज्ञानी का लक्षण बतलाते हुए लिख रहे हैं कि- जो समस्त भ्रमों से रहित, समस्त विकारों से निर्लिप्त, अतिशय मनोज्ञ एवं अविद्याजन्य सभी प्रकार की उपाधि से मुक्तस्वरूप होते हैं । उनको वह सुख प्राप्त होता है कि जो ब्रह्मादि देवों के गुणमय सुखों से अत्यधिक अच्छा है । उस परमानन्द सुख के सामने इन्द्र लक्ष्मी(स्वर्गीय) सुख तो उसी प्रकार तुच्छ हैं जैसे समुद्र के प्रवाह में बहता हुआ तिनका । यह ब्रह्म सुख नित्य अविनाशी अनन्त है । जिसका वर्णन वाणी के द्वारा संभव नहीं, अर्थात् वह अनिर्वचनीय है । केवल अनुभवगम्य है । वह सुख ब्रह्माण्ड भेद से अनन्त आकाश है और वह सुख उन सभी आकाशों में व्याप्त है । तथा समस्त दिशाओं में अनुस्यूत है । वह सुख चौदह लोकों का धारण पोषण करने वाला है । उसमें किसी प्रकार का वस्तुकृत भेद नहीं है । वह सुख उत्तम भाग्य वाले पुरुषों के द्वारा सतत सेवित होता रहता है । उसी सुख को प्राप्त करके यह ब्राह्मण ब्रह्म रूप हो गया है ।
(क्रमशः)
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