शनिवार, 6 जून 2020

साच का अंग ७७/८२

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १३. साच का अंग)
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*॥ कस्तूरिया मृग ॥*
*सदा समीप रहै संग सन्मुख, दादू लखै न गूझ ।*
*सपने ही समझै नहीं, क्यों कर लहै अबूझ ॥७७॥*
यद्यपि ब्रह्म सर्वव्यापक सबकी आत्मा सबके संग में रहने वाला सबके सन्मुख अति समीप यही है, फिर भी अज्ञानी जन उस सुगुप्त ब्रह्म को नहीं जानता । क्योंकि वह कभी ब्रह्म ज्ञानी गुरु के पास जाकर किसी प्रकार का अनुष्ठान करना सीखा ही नहीं । जैसे कस्तूरी मृग अपने में रहने वाली कस्तूरी को न जानने के कारण कभी प्राप्त नहीं कर सकता । अतः ऐसे अज्ञानी जन प्रपञ्च में आसक्त होते हुए ज्ञान न होने से नष्ट हो जाते हैं । 
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*॥ बे खर्च व्यसनी ॥*
*दादू सेवक नाम बुलाइये, सेवा सपनैं नांहिं ।*
*नाम धराये का भया, जे एक नहीं मन माहिं ॥७८॥*
*नाम धरावै दास का, दासातन थैं दूर ।*
*दादू कारज क्यों सरै, हरि सौं नहीं हजूर ॥७९॥*
*भक्त न होवै भक्ति बिन, दासातन बिन दास ।*
*बिन सेवा सेवक नहीं, दादू झूठी आस ॥८०॥*
*राम भक्ति भावै नहीं, अपनी भक्ति का भाव ।*
*राम भक्ति मुख सौं कहै, खेलै अपना डाव ॥८१॥*
*भक्ति निराली रह गई, हम भूल पड़े वन माहिं ।*
*भक्ति निरंजन राम की, दादू पावै नांहिं ॥८२॥*
सेवा करने वाला ही सेवक कहलाता है न कि सेवक नाम मात्र से । जो स्वप्न में भी नहीं जानता कि सेवा कैसी होती है । फिर व्यर्थ में ही उसने अपना नाम सेवक धर रखा है । इसी प्रकार दासातन भक्ति के बिना केवल दासनाम धारण करने से दास नहीं हो सकता और न नाम मात्र धारण करने से हरि को भी प्राप्त हो सकता । 
भक्ति के बिना केवल भक्त नाम धारण करने से भक्त नहीं हो सकता । प्रत्युत वह तो अपना भक्त नाम रख कर जनता से अपनी सेवा करवाता है । वह तो ठग है । हरि भक्ति तो उससे बहुत दूर ही रह गई । 
ऐसे प्राणी संसार रूपी जंगल में रागद्वेष आदि कांटों से विद्ध होकर व्यथित ही रहते हैं । उनको अपनी प्रतिष्ठा ही प्यारी है ऐसे मूर्ख लोग कामक्रोध लोभ मोह आदि से ग्रस्त हुए केवल वाद विवाद में गिरते हैं । मैं ही श्रेष्ठ हूं मैं ही ज्ञानी हूं, तुम नहीं हो । इस तरह मिथ्या विवाद करते हैं । 
लिखा है कि- जिन गृहस्थियों के घरों में ब्राह्मण के चरणोक्ष्य का कीचड़ नहीं होता, न वेद शास्त्र की ध्वनि सुनाई पड़ती । न स्वाहा स्वधा की आवाज आती ऐसे घर शमसान के तुल्य हैं । ऐसे पुरुष धर्मवंचक होते हैं ।
(क्रमशः)

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