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*दादू माया सौं मन रत भया, विषय रस माता ।*
*दादू साचा छाड़ कर, झूठे रंग राता ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ माया का अंग)*
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*साभार ~ श्रीरामकृष्ण-वचनामृत{श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)}*
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*संसारी तथा शास्त्रार्थ*
तीसरे पहर के चार बज चुके हैं । श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र, राखाल, मास्टर, भवनाथ आदि के साथ बैठक में बैठे हुए हैं । कुछ ब्राह्मभक्त भी आए हैं । उन्हीं के साथ बातचीत हो रही है ।
ब्राह्मभक्त- महाराज ने पंचदशी देखी है ।
श्रीरामकृष्ण- यह सब पहले-पहले एक बार सुनना पड़ता है-पहले-पहल एक बार विचार कर लेना पड़ता है । इसके बाद- ‘प्यारी श्यामा माँ को यत्नपूर्वक हृदय में रख । मन, तू देख और मैं देखूँ और दूसरा कोई न देखने पाये ।’
“साधन-अवस्था में वह सब सुनना पड़ता है । उन्हें प्राप्त कर लेने पर ज्ञान का अभाव नहीं रहता । माँ ज्ञान की राशि ठेलती रहती हैं ।
“पहले हिज्जे करके लिखना पड़ता है-फिर सीधे घसीटते जाओ ।
“सोना गलाने के समय कमर कसकर काम में लगना पड़ता है । एक हाथ में धौंकनी-दूसरे में पंखा-मुँह से फूकना-जब तक सोना न गल जाए । गल जाने पर ज्योंही साँचे में छोड़ा कि सब चिन्ता दूर हो गयी ।
“शास्त्र केवल पढ़ने ही से कुछ नहीं होता । कामिनी-कांचन में रहने से वे शास्त्र का अर्थ समझने नहीं देते । संसार की आसक्ति में ज्ञान का लोप हो जाता है ।
“प्रयत्नपूर्वक मैंने काव्यरसों के जितने भेद सीखे थे वे सब इस काले की प्रीति में पड़ने से नष्ट हो गए ।” (सब हँसते हैं ।)
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श्रीरामकृष्ण ब्राह्मभक्तों से केशव की बात कहने लगे-
“केशव योग और भोग दोनों में हैं । संसार में रहकर ईश्वर की ओर उनका मन लगा रहता है ।”
एक भक्त कानवोकेशन(विश्वविद्यालय की उपाधिवितरण सभा) के सम्बन्ध में कहते हुए बोले, “देखा, वहाँ बड़ी भीड़ लगी हुई थी ।”
श्रीरामकृष्ण- एक जगह बहुत से लोगों को देखने पर ईश्वर का उद्दीपन होता है । यदि मैं ऐसा देखता तो विव्हल हो जाता ।
(क्रमशः)
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