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*ज्यों आपै देखै आपको, यों जे दूसर होइ ।*
*तो दादू दूसर नहीं, दुःख न पावै कोइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ दया निर्वैरता का अंग)*
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साभार ~ @Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*१६४. महाप्रभु का दिव्योन्माद*
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सिंचन् सिंचन् नयनपयसा पाण्डुगण्डस्थलान्तं
मुंचन मुंचन प्रतिमुहुरहो दीर्घनि:श्वासजातम
उच्चै: क्रन्दन् करुणकरुणोद्गीर्णहाहेतिरावो
गौर: कोअपि व्रजविरहिणीभावमगन्श्चकास्ति॥[१]
([१] श्रीगौरसुन्दर अपने निरन्तर के नयनजल से दोनों गण्डस्थलों को पाण्डुरंग के बनाते हुए, प्रतिक्षण दीर्घ नि:श्वास छोड़ते हुए और करुणस्वर से हा ! हा ! शब्द करके जोरों से रुदन करते हुए किसी व्रजविरहिणी के भाव में सदा निमग्न रहने लगे। श्रीप्रबोधानन्द)
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पाठकों को सम्भवतया स्मरण होगा, इस बात को हम पहले ही बता चुके हैं कि श्रीचैतन्यदेव के शरीर में प्रेम के सभी भाव क्रमश: धीरे-धीरे ही प्रस्फुटित हुए। यदि सचमुच प्रेम के ये उच्च भाव एक साथ ही उनके शरीर में उदित हो जाते तो उनका हृदय फट जाता।
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उनका क्या किसी भी प्राणी का शरीर इन भावों के वेग को एक साथ सहन नहीं कर सकता। गया में आपको छोटे-से मुरली बजाते हुए श्याम दीखे, उन्हीं के फिर दर्शन पाने की लालसा से वे रुदन करने लगे। तभी से धीरे-धीरे उनके भावों में वृद्धि होने लगी। शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य और मधुर इन भावों में मधुर ही सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। पुरी में प्रभु इसी भाव में विभोर रहते थे।
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मधुरभाव में राधाभाव सर्वोत्कृष्ट है। सम्पूर्ण रस, सम्पूर्ण भाव और अनुभाव, राधाभाव में ही जाकर परिसमाप्त हो जाते हैं, इसलिये अन्त के बारह वर्षों में प्रभु अपने को राधा मानकर ही श्रीकृष्ण के विरह में तड़पते रहे। कविराज गोस्वामी कहते हैं–
राधिकार भावे प्रभुर सदा अभिमान।
सेइ भावे आपनाके हय ‘राधा’ ज्ञान।
दिव्योन्माद ऐछे हय, कि इहा विस्मय ?
अधिरूढ भावे दिव्योन्माद-प्रलाप हय॥
अर्थात ‘महाप्रभु राधाभाव में भावान्वित होकर उसी भाव से सदा अपने को ‘राधा’ ही समझते थे। यदि फिर उनके शरीर में ‘दिव्योन्माद’ प्रकट होता था तो इसमें विस्मय करने की कौन सी बात है।
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अधिरूढ भाव में दिव्योन्माद प्रलाप होता ही है’। इसलिये अब आपकी सभी क्रियाएँ उसी विरहिणी की भाँति होती थीं। एक दिन स्वप्न में आप रासलीला देखने लगे। अहा ! प्यारे को बहुत दिनों के पश्चात् आज वृन्दावन में देखा है। वही सुन्दर अलकावली, वही माधुरी मुसकान, वे ही हाव-भाव-कटाक्ष, उसी प्रकार रास में थिरकना, सखियों को गले लगाना, कैसा सुख है ! कितना आनन्द है ! !
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ताथेई-ताथेई करके सखियों के बीच में श्याम नाच रहे हैं और सैनों को चलाते हुए वंशी बजा रहे हैं। महाप्रभु भूल गये कि यह स्वप्न है या जागृति है। वे तो उस रस में सराबोर थे। गोविन्द को आश्चर्य हुआ कि–‘प्रभु आज इतनी देर तक क्यों सो रहे हैं, रोज तो अरुणोदय में ही उठ जाते थे, आज तो बहुत दिन भी चढ़ गया है। सम्भव है, नाराज हों, इसलिये जगा दूँ।’ यह सोचकर गोविन्द धीरे-धीरे प्रभु के तलवों को दबाने लगा। प्रभु चौंककर उठ पड़े और ‘कृष्ण कहाँ गये?’ कहकर जोरों से रुदन करने लगे।
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गोविन्द ने कहा– 'प्रभो ! दर्शनों का समय हो गया है, नित्यकर्म से निवृत्त होकर दर्शनों के लिये चलिये।’ इतना सुनते ही उसी भाव में यंत्र की तरह शरीर के स्वभावानुसार नित्यकर्मों से निवृत्त होकर श्रीजगन्नाथ जी के दर्शनों को गये। महाप्रभु गरुडस्तम्भ के सहारे घंटों खड़े-खड़े दर्शन करते रहते थे। उनके दोनों नेत्रों में से जितनी देर तक वे दर्शन करते रहते थे उतनी देर तक जल की दो धाराएँ बहती रहती थीं।
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आज प्रभु ने जगन्नाथ जी के सिंहासन पर उसी मुरली मनोहर के दर्शन किये। वे उसी प्रकार मुरली बजा-बजाकर प्रभु की ओर मन्द-मन्द मुस्कुरा रहे थे, प्रभु अनिमेषभाव से उनकी रूपमाधुरी का पान कर रहे थे। इतने में ही एक उड़ीसा प्रान्त की वृद्धा माई जगन्नाथ जी के दर्शन न पाने से गरुडस्तम्भ पर चढ़कर और प्रभु के कन्धे पर पैर रखकर दर्शन करने लगी।
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पीछे खड़े हुए गोविन्द ने उसे ऐसा करने से निषेध किया। इस पर प्रभु ने कहा– ‘यह आदिशक्ति महामाया है, इसके दर्शनसुख में विघ्न मत डालो, इसे यथेष्ट दर्शन करने दो।’ गोविन्द के कहने पर वह वृद्धा माता जल्दी से उतरकर प्रभु के पादपद्मों में पड़कर पुन:-पुन: प्रणाम करती हुई अपने अपराध के लिये क्षमा-याचना करने लगी।
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प्रभु ने गद्गद कण्ठ से कहा– मातेश्वरी ! जगन्नाथ जी के दर्शनों के लिये तुम्हें जैसी विकलता है ऐसी विकलता जगन्नाथ जी ने मुझे नहीं दी। हा ! मेरे जीवन को धिक्कार है। जननी ! तुम्हारी ऐसी एकाग्रता को कोटि-कोटि धन्यवाद है। तुमने मेरे कन्धे पर पैर रखा और तुम्हें इसका पता भी नहीं।’ इतना कहते-कहते प्रभु फिर रुदन करने लगे।
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‘भावसन्धि’ हो जाने से स्वप्न का भाव जाता रहा और अब जगन्नाथ जी के सिंहासन पर उन्हें सुभद्रा-बलरामसहित जगन्नाथ जी के दर्शन होने लगे। इससे महाप्रभु को कुरुक्षेत्र का भाव उदित हुआ, जब ग्रहण के स्नान के समय श्रीकृष्ण जी अपने परिवार के सहित गोपिकाओं को मिले थे। इससे खिन्न होकर प्रभु अपने निवासस्थान पर लौट आये। अब उनकी दशा परम कातर विरहिणी की सी हो गयी। वे उदास मन से नखों से भूमि को कुरेदते हुए विषण्णवदन होकर अश्रु बहाने लगे और अपने को बार-बार धिक्कारने लगे।
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इसी प्रकार दिन बीता, शाम हुई, अँधेरा छा गया और रात्रि हो गयी। प्रभु के भाव में कोई परिवर्तन नहीं। वही उन्माद, वही बेकली, वही विरह-वेदना उन्हें रह-रहकर व्यथित करने लगी। राय रामानन्द आये, स्वरूप गोस्वामी ने सुन्दर-सुन्दर पद सुनाये, राय महाशय ने कथा की। कुछ भी धीरज न बँधा। ‘हाय ! श्याम ! तुम किधर गये ? मुझ दु:खिनी अबला को मँझधार में ही छोड़ गये।
(क्रमशः)
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साभार ~ @Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
.
*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
.
*१६४. महाप्रभु का दिव्योन्माद*
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सिंचन् सिंचन् नयनपयसा पाण्डुगण्डस्थलान्तं
मुंचन मुंचन प्रतिमुहुरहो दीर्घनि:श्वासजातम
उच्चै: क्रन्दन् करुणकरुणोद्गीर्णहाहेतिरावो
गौर: कोअपि व्रजविरहिणीभावमगन्श्चकास्ति॥[१]
([१] श्रीगौरसुन्दर अपने निरन्तर के नयनजल से दोनों गण्डस्थलों को पाण्डुरंग के बनाते हुए, प्रतिक्षण दीर्घ नि:श्वास छोड़ते हुए और करुणस्वर से हा ! हा ! शब्द करके जोरों से रुदन करते हुए किसी व्रजविरहिणी के भाव में सदा निमग्न रहने लगे। श्रीप्रबोधानन्द)
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पाठकों को सम्भवतया स्मरण होगा, इस बात को हम पहले ही बता चुके हैं कि श्रीचैतन्यदेव के शरीर में प्रेम के सभी भाव क्रमश: धीरे-धीरे ही प्रस्फुटित हुए। यदि सचमुच प्रेम के ये उच्च भाव एक साथ ही उनके शरीर में उदित हो जाते तो उनका हृदय फट जाता।
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उनका क्या किसी भी प्राणी का शरीर इन भावों के वेग को एक साथ सहन नहीं कर सकता। गया में आपको छोटे-से मुरली बजाते हुए श्याम दीखे, उन्हीं के फिर दर्शन पाने की लालसा से वे रुदन करने लगे। तभी से धीरे-धीरे उनके भावों में वृद्धि होने लगी। शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य और मधुर इन भावों में मधुर ही सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। पुरी में प्रभु इसी भाव में विभोर रहते थे।
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मधुरभाव में राधाभाव सर्वोत्कृष्ट है। सम्पूर्ण रस, सम्पूर्ण भाव और अनुभाव, राधाभाव में ही जाकर परिसमाप्त हो जाते हैं, इसलिये अन्त के बारह वर्षों में प्रभु अपने को राधा मानकर ही श्रीकृष्ण के विरह में तड़पते रहे। कविराज गोस्वामी कहते हैं–
राधिकार भावे प्रभुर सदा अभिमान।
सेइ भावे आपनाके हय ‘राधा’ ज्ञान।
दिव्योन्माद ऐछे हय, कि इहा विस्मय ?
अधिरूढ भावे दिव्योन्माद-प्रलाप हय॥
अर्थात ‘महाप्रभु राधाभाव में भावान्वित होकर उसी भाव से सदा अपने को ‘राधा’ ही समझते थे। यदि फिर उनके शरीर में ‘दिव्योन्माद’ प्रकट होता था तो इसमें विस्मय करने की कौन सी बात है।
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अधिरूढ भाव में दिव्योन्माद प्रलाप होता ही है’। इसलिये अब आपकी सभी क्रियाएँ उसी विरहिणी की भाँति होती थीं। एक दिन स्वप्न में आप रासलीला देखने लगे। अहा ! प्यारे को बहुत दिनों के पश्चात् आज वृन्दावन में देखा है। वही सुन्दर अलकावली, वही माधुरी मुसकान, वे ही हाव-भाव-कटाक्ष, उसी प्रकार रास में थिरकना, सखियों को गले लगाना, कैसा सुख है ! कितना आनन्द है ! !
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ताथेई-ताथेई करके सखियों के बीच में श्याम नाच रहे हैं और सैनों को चलाते हुए वंशी बजा रहे हैं। महाप्रभु भूल गये कि यह स्वप्न है या जागृति है। वे तो उस रस में सराबोर थे। गोविन्द को आश्चर्य हुआ कि–‘प्रभु आज इतनी देर तक क्यों सो रहे हैं, रोज तो अरुणोदय में ही उठ जाते थे, आज तो बहुत दिन भी चढ़ गया है। सम्भव है, नाराज हों, इसलिये जगा दूँ।’ यह सोचकर गोविन्द धीरे-धीरे प्रभु के तलवों को दबाने लगा। प्रभु चौंककर उठ पड़े और ‘कृष्ण कहाँ गये?’ कहकर जोरों से रुदन करने लगे।
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गोविन्द ने कहा– 'प्रभो ! दर्शनों का समय हो गया है, नित्यकर्म से निवृत्त होकर दर्शनों के लिये चलिये।’ इतना सुनते ही उसी भाव में यंत्र की तरह शरीर के स्वभावानुसार नित्यकर्मों से निवृत्त होकर श्रीजगन्नाथ जी के दर्शनों को गये। महाप्रभु गरुडस्तम्भ के सहारे घंटों खड़े-खड़े दर्शन करते रहते थे। उनके दोनों नेत्रों में से जितनी देर तक वे दर्शन करते रहते थे उतनी देर तक जल की दो धाराएँ बहती रहती थीं।
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आज प्रभु ने जगन्नाथ जी के सिंहासन पर उसी मुरली मनोहर के दर्शन किये। वे उसी प्रकार मुरली बजा-बजाकर प्रभु की ओर मन्द-मन्द मुस्कुरा रहे थे, प्रभु अनिमेषभाव से उनकी रूपमाधुरी का पान कर रहे थे। इतने में ही एक उड़ीसा प्रान्त की वृद्धा माई जगन्नाथ जी के दर्शन न पाने से गरुडस्तम्भ पर चढ़कर और प्रभु के कन्धे पर पैर रखकर दर्शन करने लगी।
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पीछे खड़े हुए गोविन्द ने उसे ऐसा करने से निषेध किया। इस पर प्रभु ने कहा– ‘यह आदिशक्ति महामाया है, इसके दर्शनसुख में विघ्न मत डालो, इसे यथेष्ट दर्शन करने दो।’ गोविन्द के कहने पर वह वृद्धा माता जल्दी से उतरकर प्रभु के पादपद्मों में पड़कर पुन:-पुन: प्रणाम करती हुई अपने अपराध के लिये क्षमा-याचना करने लगी।
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प्रभु ने गद्गद कण्ठ से कहा– मातेश्वरी ! जगन्नाथ जी के दर्शनों के लिये तुम्हें जैसी विकलता है ऐसी विकलता जगन्नाथ जी ने मुझे नहीं दी। हा ! मेरे जीवन को धिक्कार है। जननी ! तुम्हारी ऐसी एकाग्रता को कोटि-कोटि धन्यवाद है। तुमने मेरे कन्धे पर पैर रखा और तुम्हें इसका पता भी नहीं।’ इतना कहते-कहते प्रभु फिर रुदन करने लगे।
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‘भावसन्धि’ हो जाने से स्वप्न का भाव जाता रहा और अब जगन्नाथ जी के सिंहासन पर उन्हें सुभद्रा-बलरामसहित जगन्नाथ जी के दर्शन होने लगे। इससे महाप्रभु को कुरुक्षेत्र का भाव उदित हुआ, जब ग्रहण के स्नान के समय श्रीकृष्ण जी अपने परिवार के सहित गोपिकाओं को मिले थे। इससे खिन्न होकर प्रभु अपने निवासस्थान पर लौट आये। अब उनकी दशा परम कातर विरहिणी की सी हो गयी। वे उदास मन से नखों से भूमि को कुरेदते हुए विषण्णवदन होकर अश्रु बहाने लगे और अपने को बार-बार धिक्कारने लगे।
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इसी प्रकार दिन बीता, शाम हुई, अँधेरा छा गया और रात्रि हो गयी। प्रभु के भाव में कोई परिवर्तन नहीं। वही उन्माद, वही बेकली, वही विरह-वेदना उन्हें रह-रहकर व्यथित करने लगी। राय रामानन्द आये, स्वरूप गोस्वामी ने सुन्दर-सुन्दर पद सुनाये, राय महाशय ने कथा की। कुछ भी धीरज न बँधा। ‘हाय ! श्याम ! तुम किधर गये ? मुझ दु:खिनी अबला को मँझधार में ही छोड़ गये।
(क्रमशः)
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