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*सो दिन कबहूँ आवेगा, दादूड़ा पीव पावेगा ॥*
*क्यूँ ही अपने अंग लगावेगा,*
*तब सब दुख मेरा जावेगा ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. ८)*
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साभार ~ @Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*१६३. प्रेम की अवस्थाओं का संक्षिप्त परिचय*
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अनुराग को शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा के समान[प्रतिक्षणवर्द्धमान] प्रवर्द्धनशील कहा गया है। अनुराग हृदय में बढ़ते-बढ़ते जब सीमा के समीप तक पहुँच जाता है तो उसे ही ‘भाव’ कहते हैं। वैष्णव गण इसी अवस्था को ‘प्रेम का श्री गणेश’ कहते हैं। जब भाव परम सीमा तक पहुँचता है तो उसका नाम ‘महाभाव’ होता है।
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महाभाव के भी ‘रूढ़ महाभाव’ और ‘अधिरूढ़ महाभाव’ दो भेद बताये गये हैं। अधिरूढ़ महाभाव के भी ‘मोदन’ और ‘मादन’ दो रूप कहे हैं। ‘मादन’ ही ‘मोहन’ के भाव में परिणित हो जाता है, तब फिर ‘दिव्योन्माद’ होता है। ‘दिव्योन्माद’ ही ‘प्रेम’ या रति की पराकाष्ठा या सबसे अन्तिम स्थिति है। इसके उद्घूर्णा चित्रजल्पादि बहुत से भेद हैं। यह दिव्योन्माद श्री राधिका जी के ही शरीर में प्रकट हुआ था।
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दिव्योन्मादावस्था में कैसी दशा होती है, इस बात का अनुमान श्रीमद्भागवत् के उक्त श्लोक से कुछ-कुछ लगाया जा सकता है–
एंवव्रत: स्वप्रियनामकीर्त्या
जातानुरागो द्रुतचित्त उच्चै:।
हसत्यथो रोदिति रौति गाय
त्युन्मादवन्नृत्यति लोकबाह्य:॥[२]
([२] श्रीकृष्ण के श्रवण-कीर्तन का ही जिसने व्रत ले रखा है ऐसा प्रेमी अपने प्यारे श्रीकृष्ण के नाम-संकीर्तन से उनमें अनुरक्त एवं विह्वलचित्त होकर संसारी लोगों की कुछ भी परवा न करता हुआ कभी तो जोर-जोर से हँसता है, कभी रोता है, कभी चिल्लाता है, कभी गाता है और कभी पागल के समान नाचने लगता है। श्रीमद्भा. ११/२/४०)
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इस श्लोक में ‘रौति’ और ‘रोदिति’ ये दो क्रियाएं साथ दी हैं। इससे खूब जोरों से ठाह मारकर रोना ही अभिव्यंजित होता है। ‘रु’ धातु शब्द करने के अर्थ में व्यवहृत होती है। जोरों से रोने के अनन्तर जो एक करुणाजनक ‘हा’ शब्द अपने-आप ही निकल पड़ता है वही यहाँ ‘रौति’ क्रिया का अर्थ होगा। इसमें उन्माद की अवस्था का वर्णन नहीं है।
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यह तो ‘उन्माद की-सी अवस्था’ का वर्णन है। उन्मादावस्था तो इससे भी विचित्र होगी। यह तो सांसारिक उन्माद की बात हुई, अब दिव्योन्माद तो फिर उन्माद से भी बढ़कर विचित्र होगा ! वह अनुभवगम्य विषय है। श्रीराधिका जी को छोड़कर और किसी के शरीर में यह प्रकट रूप से देखा अथवा सुना नहीं गया।
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भावों की चार दशा बतायी हैं–
(१) भावोदय,
(२) भावसन्धि,
(३) भावशावल्य और
(४) भावशान्ति।
किसी कारण विशेष से जो हृदय में भाव उत्पन्न होता है उसे भावोदय कहते हैं। जैसे सायंकाल होते ही श्रीकृष्ण के आने का भाव हृदय में उदित हो गया। हृदय में दो भाव जब आकर मिल जाते हैं तो उस अवस्था का नाम भाव सन्धि है जैसे बीमार होकर पति के घर लौटने पर पत्नी के हृदय में हर्ष और विषादजन्य दोनों भावों की सन्धि हो जाती है। बहुत-से भाव जब एक साथ उदय हो जायँ तब उसे भावशाल्य कहते हैं। जैसे पुत्रोत्पत्ति के समाचार के साथ ही पत्नी की भयंकर दशा का तथा पुत्र को प्राप्त होने वाली उसके पुत्रहीन मातामह की सम्पत्ति तथा उसके प्रबन्ध करने के भाव एक साथ ही हृदय में उत्पन्न हो जायँ। इसी प्रकार जब इष्ट वस्तु के प्राप्त हो जाने पर जो एक प्रकार की सन्तुष्टि हो जाती है उसे ‘भावशान्ति’ कहते हैं। जैसे रास में अन्तरध्यान हुए श्रीकृष्ण सखियों को सहसा मिल गये, उस समय उनका अदर्शन रूप जो विरहभाव था वह शान्त हो गया।
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इसी प्रकार निर्वेद, विषाद, दैन्य, ग्लानि, तम, मद, गर्व, शंका, त्रास, आवेग, उन्माद, अपस्मार, व्याधि, मोह, मृति, आलस्य, जाड्य, व्रीडा, अवहित्था, स्मृति, वितर्क, चिन्ता, मति, धृति, हर्ष, औत्सुक्य, अमर्ष, असूया, चापल्य, निद्रा, और बोध इन सबको व्यभिचारीभाव कहते हैं। इनका वैष्णव-शास्त्रों में विशदरूप से वर्णन किया गया है।
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इन सब बातों का असली तात्पर्य यही है कि हृदय में किसी की लगन लग जाय। दिल में कोई धँस जाय, किसी की रूपमाधुरी आँखों में समा जाय, किसी के लिये उत्कट अनुराग हो जाय तब सभी बेड़ा पार हो जाय। एक बार उस प्यारे से लगन लगनी चाहिये फिर भाव, महाभाव, अधिरूढ़भाव तथा सात्त्विक विकार और विरह की दशाएं तो अपने-आप उदित होंगी।
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पानी की इच्छा होनी चाहिये। ज्यों–ज्यों पानी के बिना गला सूखने लगेगा त्यों-त्यों तड़फडाहट अपने-आप ही बढ़ने लगेगी। उस तड़फडाहट को लाने के लिये प्रयत्न न करना होगा। किन्तु हृदय किसी को स्थान दे तब न, उसने तो काम-क्रोधाधि चोरों को स्थान दे रखा है। वहाँ फिर महाराज प्रेमदेव कैसे पधार सकते हैं। सचमुच हमारा हृदय तो वज्र का है। स्तम्भ, रोमांच, अश्रु आदि आठ विकारों में से एक भी तो हमारे शरीर में स्वेच्छा से उदित नहीं होता।
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भगवान वेदव्यास तो कहते हैं–
तदश्मसारं हृदयं बतेदं
यद्गृह्यमाणैर्हरिनामधेयै:।
न विक्रियेताथ यदा विकारो
नेत्रे जलं गात्ररुहेषु हर्ष:॥
अर्थात् उस पुरुष के हृदय को व्रज की तरह-फौलाद की तरह-समझना चाहिये जिसके नेत्रों में हरिनाम स्मरण मात्र से ही जल न भर आता हो, शरीर में रोमांच न हो जाते हों और हृदय में किसी प्रकार विकार न होता हो।’ सचमुच हमारा तो हृदय ऐसा ही है। कैसे करें, क्या करने से नेत्रों में जल और हृदय में प्रेम की विकृति उत्पन्न हो।
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चैतन्य महाप्रभु भी रोते-रोते यही कहा करते थे–
नयनं गलदश्रुधारया वदनं गद्गदरुद्धया गिरा।
पुलकैर्निचितं वपु: कदा तव नामग्रहणे भविष्यति॥
अर्थात ‘हे नाथ ! तुम्हारा नाम ग्रहण करते-करते कब हमारे नेत्रों से जल की धारा बहने लगेगी। कब हम गद्गद कण्ठ से ‘कृष्ण-कृष्ण’ कहते हुए पुलकित हो उठेंगे?’ वे महाभाग तो अपनी साध को पूरी कर गये।
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अठारह वर्ष नेत्रों से इतनी जलधारा बहायी कि कोई मनुष्य इतने रक्त का जल कभी बना ही नहीं सकता। गौरभक्तों का कहना है कि महाप्रभु गरुडस्तम्भ के समीप जगमोहन के इसी ओर जहाँ खड़े होकर दर्शन करते थे, वहाँ नीचे एक छोटा-सा कुण्ड था। महाप्रभु दर्शन करते-करते इतना रोते थे कि उस गड्ढे में अश्रुजल भर जाता था।
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एक-दो दिन नहीं, साल-दो-साल नहीं, पूरे अठारह साल इसी प्रकार वे रोये। उन्मादावस्था में भी उनका श्री जगन्नाथ जी के दर्शन को जाना बंद नहीं हुआ। यह काम उनका अन्त तक अक्षुण्णभाव से चलता रहा। वैष्णव भक्तों का कथन है कि महाप्रभु के शरीर में प्रेम के ये सभी भाव प्रकट हुए। क्यों न हों, वे तो चैतन्यस्वरूप ही थे। महाप्रभु के उन दिव्यभावों का वृत्तान्त पाठक अगले प्रकरणों में पढ़ेंगे।
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अन्त में श्रीललित किशोरी जी की अभिलाषा में अपनी अभिलाषा मिलाते हुए हम इस वक्तव्य को समाप्त करते हैं–
जमुना पुलिन कुंज गहवरकी
कोकिल ह्वै द्रुम कूक मचाऊँ।
पद-पंकज प्रिय लाल मधुप ह्वै
मधुरे-मधुरे गुंज सुनाऊँ॥
कूकर ह्वै बन बीथिन डोलौं
बचे सीथ रसिकनके खाऊँ।
‘ललितकिसोरी’ आस यही मम
ब्रज-रज तजि छिन अनत न जाऊँ॥
(क्रमशः)
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