सोमवार, 22 जून 2020

*१६४. महाप्रभु का दिव्‍योन्‍माद*

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*जहँ विरहा तहँ और क्या, सुधि, बुधि नाठे ज्ञान ।*
*लोक वेद मारग तजे, दादू एकै ध्यान ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग)*
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साभार ~ @Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*१६४. महाप्रभु का दिव्‍योन्‍माद*
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हाय ! मेरे भाग्‍य को धिक्‍कार है, जो अपने प्राणवल्‍लभ को पाकर भी मैंने फिर गँवा दिया। अब कहाँ जाऊँ ? कैसे करूँ ? किससे कहूँ, कोई सुनने वाला भी तो नहीं। हाय ! ललिते ! तू ही कुछ उपाय बता। ओ बहिन विशाखे ! अरी, तू ही मुझे धीरज बँधा। मैना ! मर जाऊँगी। प्‍यारे के बिना मैं प्राण धारण नहीं कर सकती। जोगिन बन जाऊँगी। घर-घर अलख जगाऊँगी, नरसिंहा लेकर बजाऊँगी, तन में भभूत रमाऊँगी, मैं मारी-मारी फिरूँगी, किसी की भी न सुनूँगी। या तो प्‍यारे के साथ जीऊँगी या आत्‍मघात करके मरूँगी ! हाय ! निर्दयी ! ओ निष्‍ठुर श्‍याम ! तुम कहाँ चले गये?’
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बस, इसी प्रकार प्रलाप करने लगे। रामानन्‍द जी आधी रात्रि होने पर गम्‍भीरा मन्दिर में प्रभु को सुलाकर चले गये। स्‍वरूप गोस्‍वामी वहीं गोविन्‍द के समीप ही पड़़े रहे। महाप्रभु जोरों से बड़े ही करुणस्‍वर में भगवान के इन नामों का उच्‍चारण कर रहे थे–
श्रीकृष्‍ण ! गोविन्‍द ! हरे ! मुरारे ! हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव !
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इन नामों की सुमधुर गूँज गोविन्‍द और स्‍वरूप गोस्‍वामी के कानों में भर गयी। वे इन नामों को सुनते-सुनते ही सो गये। किन्‍तु प्रभु की आँखों में नींद कहाँ, उनकी तो प्राय: सभी रातें, हा नाथ ! हा प्‍यारे ! करते-करते ही बीतती थीं। थोड़ी देर में स्‍वरूप गोस्‍वामी की आँखें खुलीं तो उन्‍हें प्रभु का शब्‍द सुनायी नहीं दिया।
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सन्‍देह होने से वे उठे, गम्‍भीरा में जाकर देखा, प्रभु नहीं हैं। मानो उनके हृदय में किसी ने वज्र मार दिया हो। अस्‍त-व्‍यस्‍तभाव से उन्‍होंने दीपक जलाया। गोविन्‍द को जगाया। दोनों ही उस विशाल भवन के कोने-कोने में खोज करने लगे, किन्‍तु प्रभु का कहीं पता ही नहीं। सभी घबड़ाये-से इधर-उधर भागने लगे।
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गोविन्‍द के साथ वे सीधे मन्दिर की ओर गये वहाँ जाकर क्‍या देखते हैं, सिंहद्वार के समीप एक मैले स्‍थान में प्रभु पड़े हैं। उनकी आकृति विचित्र हो गयी थी। उनका शरीर खूब लम्‍बा पड़ा था । हाथ-पैर तथा सभी स्‍थानों की सन्धियाँ बिलकुल खुल गयी थीं। मानो किसी ने टूटी हड्डियां लेकर चर्म के खोल में भर दी हो। शरीर अस्‍त-व्‍यस्‍त पड़ा था। श्‍वास-प्रश्‍वास की गति एकदम बंद थी।
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कविराज गोस्‍वामी ने वर्णन किया है–
प्रभु पड़ि आछेन दीर्घ हात पांच छय।
अचेतन देह नाशाय श्‍वास नाहि बय॥
एक-एक हस्‍त-पाद-दीर्घ तिन हात।
अस्थि ग्रंथिभिन्‍न, चर्मे आछे मात्र तात॥
हस्‍त, पाद, ग्रीवा, कटि, अस्थि-संधि यत।
एक-एक वितस्ति भिन्‍न हय्या छे तत॥
चर्ममात्र उपरे, संधि आछे दीर्घ हय्या।
दु:खित हेला सबे प्रभुरे देखिया॥
मुख लाला-फेन प्रभुर उत्‍तान-नयन।
देखिया सकल भक्तेर देह छाडे प्रान॥[१]
([१] प्रभु पांच-छ: हाथ लम्‍बे पड़े हुए थे, देह अचेतन थी, नासिका से श्‍वास नहीं बह रहा था, एक-एक हाथ पैर तीन-तीन हाथ लम्‍बे हो गये थे। हड्डियों की सभी सन्धियाँ अलग-अलग हो गयी थीं, केवल ऊपर चर्म-ही-चर्म चढ़ा हुआ था। हाथ, पैर, ग्रीवा और कटि-हड्डियों के जोड़ एक-एक वितस्ति अलग-अलग हो गये थे। ऊपर चर्ममात्र था, सन्धि लम्‍बी हो गयी थी। महाप्रभु की ऐसी दशा देखकर सभी भक्‍त दु:खी हो गये। उनके मुख से लार और फेन बह रहा था, नेत्र चढ़े हुए थे। उनकी ऐसी दशा देखकर भक्‍तों के प्राण शरीर को परित्‍याग करके जाने लगे।)
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अर्थ स्‍पष्‍ट है, भक्‍तों ने समझा प्रभु के प्राण शरीर छोड़कर चले गये। तब स्‍वरूप गोस्‍वामी जी ने जोरों से प्रभु के कानों में कृष्‍ण नाम की ध्‍वनि की। उस सुमधुर और कर्णप्रिय ध्‍वनि को सुनकर प्रभु को कुछ-कुछ बाह्य-ज्ञान सा होने लगा। वे एक साथ ही चौंककर ‘हरि बोल’, ‘हरि बोल’ कहते हुए उठ बैठे। प्रभु के उठने पर धीरे-धीरे अस्थियों की संन्धियाँ अपने-आप जुडने लगीं।
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श्री गोस्‍वामी रघुनाथदास जी वहीं थे, उन्‍होंने अपनी आँखों से प्रभु की यह दशा देखी होगी। उन्‍होंने अपने ‘चैतन्‍यस्‍वतकल्‍पवृक्ष’ नामक ग्रन्‍थ में इस घटना का यों वर्णन किया है–
क्‍वचिन्मिश्रावासे व्रजपतिसुतस्‍योरुविरहा-
च्‍छलथत्‍सत्‍सन्धित्‍वाद्दधदधिकदैर्घ्‍यं भुजपदो:।
लुठन् भूमौ काक्‍वा विकलविकल गद्गदवचा
रुदंञ्चछ्रीगौरांगो हृदय उदयन्‍मां मदयति॥
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किसी समय काशी मिश्र के भवन में श्रीकृष्‍ण विरह उत्‍पन्‍न होने पर प्रभु की सन्धियाँ ढीली पड़ जाने से हाथ-पैर लंबे हो गये थे। पृथ्वी पर काकुस्‍वर से, गद्गद वचनों से जोरों के साथ रुदन करते-करते लोट-पोट होने लगे, वे ही श्री गौरांग हमारे हृदय में उदित होकर हमें मद में मतवाला बना रहे हैं। उन हृदय में उदित होकर मतवाले बनाने वाले श्री गौरांग के और मदमत्त बने श्री रघुनाथदास जी के चरणों में हमारा साष्‍टांग प्रणाम है !
(क्रमशः)

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