सोमवार, 22 जून 2020

*१६५. गोवर्धन के भ्रम से चटकगिरि की ओर गमन*

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*दादू कहु दीदार की, सांई सेती बात ।*
*कब हरि दरशन देहुगे, यहु औसर चलि जात ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग)*
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साभार ~ @Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*१६५. गोवर्धन के भ्रम से चटकगिरि की ओर गमन*
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समीपे नीलाद्रेश्‍चटकगिरिराजस्‍य कलना
दये गोष्‍ठे गोवर्धनगिरिपतिं लोकितुमित:।
व्रजन्‍नस्‍मीत्‍युक्‍त्‍वा प्रमद इव धावन्‍नवधृते
गणै: स्‍वैर्गौरांगो हृदय उदयन्‍मां मदयति॥[1]
(श्रीरघुनाथदास गोस्‍वामी कहते हैं– नीलांचल के निकट समुद्र की बालुका के चटकपर्वत को देखकर गोवर्धन भ्रम से ‘मैं गिरिराज गोवर्धन के दर्शन करूँगा’ ऐसा कहकर महाप्रभु उस ओर दौड़ने लगे। अपने सभी विरक्‍त वैष्‍णवों से वेष्टित वही गौरांग हमारे हृदय में उदित होकर हमें पागल बना रहे हैं। चैतन्‍यस्‍तवकल्‍पवृक्ष)
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महाप्रभु की अब प्राय: तीन दशाएँ देखी जाती थीं– अन्‍तर्दशा, अर्धबाह्यदशा और बाह्यदशा। *अन्‍तर्दशा* में वे गोपीभाव से या राधाभाव से श्रीकृष्‍ण के विरह में, मिलन में भाँति-भाँति के प्रलाप किया करते थे। *अर्धबाह्यदशा* में अपने को कुछ-कुछ समझने लगते और अब थोड़ी देर पहले जो देख रहे थे उसे ही अपने अन्‍तरंग भक्‍तों को सुनाते थे और उस भाव के बदलने के कारण पश्‍चाताप प्रकट करते हुए रुदन भी करते थे। *बाह्यदशा* में खूब अच्‍छी-भली बातें करते थे और सभी भक्‍तों को यथायोग्‍य सत्‍कार करते, बड़ो को प्रणाम करते, छोटों की कुशल पूछते।
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इस प्रकार उनकी तीन ही दशाएँ भक्‍तों को देखने में आती थीं। तीसरी दशा में तो वे बहुत ही कम कभी-कभी आते थे, नहीं तो सदा अन्‍तर्दशा या अर्धबाह्यदशा में ही मग्‍न रहते थे। स्नान शयन, भोजन और पुरुषोत्तमदर्शन, ये तो शरीर के स्वभावानुसार स्वत: ही सम्पन्न होते रहते थे। अर्धबाह्यदशा में भी इन कामों में कोई विघ्‍न नहीं होता था।
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प्राय: उनका अधिकांश समय रोने में और प्रलाप में ही बीतता था। रोने के कारण आँखें सदा चढ़ी सी रहती थीं, निरन्‍तर की अश्रुधारा के कारण उनका वक्ष:स्‍थल सदा भीगा ही रहता था। अश्रुओं की धारा बहने से कपोलों पर कुछ हल्की सी पपड़ी पड़ गयी थी और उनमें कुछ पीलापन भी आ गया था। रामानन्‍द राय और स्‍वरूप दामोदर ही उनके एकमात्र सहारे थे।
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विरह की वेदना में इन्‍हें ही ललिता और विशाखा समझकर तथा इनके गले से लिपटकर वे अपने दु:खों को कुछ शान्‍त करते थे। स्‍वरूप गोस्‍वामी के कोकिल कूजित कण्‍ठ से कविता श्रवण करके वे परमानन्‍द सुख का अनुभव करते थे। उनका विरह उन प्रेममयी पदावलियों के श्रवण से जितना ही अधिक बढ़ता था, उतनी ही उन्‍हें प्रसन्‍नता होती थी और वे उठकर नृत्‍य करने लगते थे।
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एक दिन महाप्रभु समुद्र की ओर जा रहे थे, दूर से ही उन्‍हें बालुका का चटक नामक पहाड़- सा दीखा। बस, फिर क्‍या था, जोरों की हुंकार मारते हुए आप उसे ही गोवर्धन समझकर उसी ओर दौड़े। इनकी अद्भुत हुंकार को सुनकर जो भी भक्‍त जैसे बैठा था, वह वैसे ही इनके पीछे दौड़ा किन्‍तु भला, ये किसके हाथ आने वाले थे।
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वायु की भाँति आवेश के झोकों के साथ उड़े चले जा रहे थे। उस समय इनके सम्‍पूर्ण शरीर में सभी सात्त्विक विकार उत्‍पन्‍न हो गये थे। बड़ी ही विवित्र और अभूतपूर्व दशा थी। गोस्‍वामी ने अपनी मार्मिक लेखनी से बड़़ी ही ओजस्विनी भाषा में इनकी दशा का वर्णन किया है। उन्‍हीं के शब्‍दों में सुनिये –
प्रति रोमकूपे मांस व्रणेर आकार।
तार उपरे रोमोद्गम कदंब प्रकार॥
प्रतिरोमे प्रस्‍वेद पड़े रुधिरेर धार।
कंठ घर्घर, नाहि वर्णेर उच्‍चार॥
दुई नेत्रे भरि, अश्रु बहये अपार।
समुद्रे मिलिला येन गंगा-यमुना धार॥
वैवर्ण शंख प्राय, स्‍वेद हेल अंग।
तवे कंप उठे येन समुद्रे तरंग॥
अर्थात ‘प्रत्‍येक रोमकूप मानो मांस का फोड़ा ही बन गया है, उनके ऊपर रोम ऐसे दीखते हैं जैसे कदम्‍ब की कलियाँ। प्रत्‍येक रोमकूप से रक्‍त की धार के समान पसीना बह रहा है। कण्‍ठ घर्घर शब्‍द कर रहा है, एक भी वर्ण स्‍पष्‍ट सुनायी नहीं देता। दोनों नेत्रों से अपार अश्रुओं की दो धाराएं बह रही हैं मानो गंगाजी और यमुनाजी मिलने के लिये समुद्र की ओर जा रही हों। वैवर्ण के कारण मुख शंख के समान सफेद-सा पड़ गया है। शरीर पसीने से लथपथ हो गया है। शरीर में कँपकँपी ऐसे उठती हैं मानो समुद्र से तरंगें उठ रही हों।’
.ऐसी दशा होने पर प्रभु और आगे न बढ़ सके। वे थर-थर कांपते हुए एकदम भूमि पर गिर पड़े । गोविन्‍द पीछे दौड़़ा आ रहा था, उसने प्रभु को इस दशा में पड़े हुए देखकर उनके मुख में जल डाला और अपने वस्‍त्र से वायु करने लगा। इतने में ही जगदानन्‍द पण्डित, गदाधर गोस्‍वामी, रमाई, नदाई तथा स्‍वरूप दामोदर आदि भक्‍त पहुँच गये।
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प्रभु की ऐसी विचित्र दशा देखकर सभी को परम विस्‍मय हुआ। सभी प्रभु को चारों ओर से घेरकर उच्‍च स्‍वर से संकीर्तन करने लगे। अब प्रभु को कुछ-कुछ होश आया। वे हुंकार मारकर उठ बैठे और अपने चारों ओर भूले-से, भटके-से, कुछ गँवाये-से इधर-उधर देखने लगे।
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और स्‍वरूप गोस्‍वामी से रोते-रोते कहने लगे– ‘अरे ! हमें यहाँ कौन ले आया? गोवर्धन पर से यहाँ हमें कौन उठा लाया? अहा ! वह कैसी दिव्‍य छटा थी, गोवर्धन की नीरव निकुंज में नन्‍दलाल ने अपनी वही बाँस की वंशी बजायी। उसकी मीठी ध्‍वनि सुनकर मैं भी उसी ओर उठ धायी। राधारानी भी अपनी सखी-सहेलियों के साथ उसी स्‍थान पर आयीं। अहा ! उस साँवरे की कैसी सुन्‍दर मन्‍द मुस्कान थी ! उसकी हँसी में जादू था।
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सभी गोपिकाएँ अकी-सी, जकी-सी, भूली-सी, भटकी-सी उसी को लक्ष्‍य करके दौड़ी आ रही थीं। सहसा वह साँवला अपनी सर्वश्रेष्‍ठ सखी श्रीराधिका जी को साथ लेकर न जाने किधर चला गया। तब क्‍या हुआ कुछ पता नहीं। यहाँ मुझे कौन उठा लाया? इतना कहकर प्रभु बड़े ही जोरों से हा कृष्‍ण ! हा प्राणवल्‍लभ ! हा हृदयरमण ! कहकर जोरों से रुदन करने लगे। प्रभु की इस अद्भुत दशा का समाचार सुनकर श्री परमानन्‍द जी पुरी और ब्रह्मानन्‍द जी भारती भी दौड़े आये।
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अब प्रभु की एकदम बाह्य दशा हो गयी थी, अत: उन्‍होंने श्रद्धा पूर्वक इन दोनों पूज्‍य संन्‍यासियों को प्रणाम किया और संकोच के साथ कहने लगे– ‘आपने क्‍यों कष्‍ट किया? व्‍यर्थ ही इतनी दूर आये।’ पुरी गोस्‍वामी ने हँसकर कहा– ‘हम भी चले आये कि चलकर तुम्‍हारा नृत्‍य ही देखें।’ इतना सुनते ही प्रभु लज्जित-से हो गये। भक्‍तवृन्‍द महाप्रभु को साथ लेकर उनके निवास स्‍थान पर आये।
(क्रमशः)

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