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*पंडित श्री जगजीवनदास जी की अनभै वाणी*
*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*५. परचा कौ अंग ~ २१/२४*
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दूजा दुख व्यापै नहीं, कामनि परसै कंत ।
जगजीवन जागै सुरति, तौ जस करि जीवै संत ॥२१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जब जीव प्रभु शरण में हो तो अन्य कोइ दुःख उसे नहीं व्यापते। वह प्रियतम के संरक्षण में स्थित स्त्री की भातिं निश्चिंत होता है और जब वह ध्यान में हो स्थितप्रज्ञ होता है तो संतों के समान यशस्वी होता है।
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झिलमिल दीसै बरसतां, पकड़्या न आवै हाथ ।
जगजीवन गहै सुरति सूं, रहै रांम के साथ ॥२२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु कृपा झिलमिल बरसती दिखती है, किंतु हम उसे स्थूल अंगो से नहीं पकड़ सकते । जब जीव ध्यान करते हैं तो वह प्रभु ध्यान के साथ ही मिलती है।
तेज विलास विवेक सूं, सहज सुंनि करि जांण ।
जगजीवन उपज्या नहीं, सो निज तेज पिछांण ॥२३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि तेज के वैभव से और जागृत विवेक से ही शून्य में स्थित प्रभु को जाना जा सकता है। वह कहीं जन्म नहीं लेता उस ब्रह्म को तो विवेक से ही जाना जा सकता है।
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तत्त निरूपन कीजिये, त्रिकुटी१ आगै तात ।
सो घर घर ही मांहि है, जगजीवन तहां जात ॥२४॥
(१. त्रिकुटी-इडा, पिंगला, सुषुम्ना)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि देह स्थित जो आतंरिक संरचना में इडा, पिगंला व सुषुम्ना नाड़ी हैं वे जागृत होने पर उनके निकट ही परमात्मा का स्थान है, आप इस तत्व प्रकरण को भलीभातिं समझें कि प्रभु का निवास हमारे मन रुपी निवास में ही है जहाँ प्रभु विराजते हैं।
(क्रमशः)
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