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*राम तूँ मोरा हौं तोरा, पाइन परत निहोरा ॥टेक॥*
*एकै संगैं वासा, तुम ठाकुर हम दासा ॥१॥*
*तन मन तुम कौं देबा, तेज पुंज हम लेबा ॥२॥*
*रस माँही रस होइबा, ज्योति स्वरूपी जोइबा ॥३॥*
*ब्रह्म जीव का मेला, दादू नूर अकेला ॥४॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद. ४०७)*
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*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)*
*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ*
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वैष्णव भक्त- महाराज, ईश्वर का चिन्तन भला क्यों करें ?
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*जीवन्मुक्त । उत्तम भक्त । ईश्वरदर्शन के लक्षण*
श्रीरामकृष्ण- यह बोध यदि रहे तो फिर वह जीवन्मुक्त ही है । परन्तु सब में यह विश्वास नहीं होता, केवल मुँह से कहते हैं । ईश्वर है, उन्हीं की इच्छा से सब कुछ हो रहा है – यह विषयासक्त लोग सुन भर लेते हैं, इस पर विश्वास नहीं रखते ।
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“विषयासक्त लोगों का ईश्वर कैसा होता है, जानते हो ? जैसे माँ-काकी का झगड़ा सुनकर बच्चे भी झगड़ते हुए कहते हैं, मेरे ईश्वर हैं ।
“क्या सभी लोग ईश्वर की धारणा कर सकते हैं? उन्होंने भले आदमी भी बनाए हैं और बुरे आदमी भी, भक्त भी बनाए हैं और अभक्त भी, विश्वासी भी बनाए हैं और अविश्वासी भी । उनकी लीला, में सर्वत्र विविधता है । उनकी शक्ति कहीं अधिक प्रकाशित है तो कहीं कम । सूर्य का तेज मिट्टी की अपेक्षा जल में अधिक प्रकाशित होता है, फिर जल की अपेक्षा दर्पण में अधिक प्रकाशित होता है ।
“फिर भक्तों के बीच अलग अलग श्रेणियाँ हैं – उत्तम भक्त, मध्यम भक्त, अधम भक्त । गीता में ये सब बातें हैं ।
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वैष्णव भक्त- जी हाँ ।
श्रीरामकृष्ण- अधम भक्त कहता है, - ईश्वर बहुत दूर आकाश में हैं । मध्यम भक्त कहता है, - ईश्वर सर्वभूतों में चेतना के रूप में, प्राण के रूप में विद्यान हैं, उत्तम भक्त कहता है, - ईश्वर स्वयं ही सब कुछ हुए हैं; जो भी कुछ दीख पड़ता है वह उन्हीं का एक एक रुप है; वे ही माया, जीव, जगत् आदि बने हैं; उनके सिवा दूसरा कुछ भी नहीं है ।
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वैष्णव भक्त- क्या ऐसी अवस्था किसी को प्राप्त होती है ?
श्रीरामकृष्ण- उनके दर्शन हुए बिना ऐसी अवस्था नहीं हो सकती । परन्तु दर्शन हुए हैं या नहीं इसके लक्षण हैं । दर्शन होने पर मनुष्य कभी उन्मत्तवत् हो जाता है – हँसता, रोता, नाचता, गाता है । फिर कभी बालकवत् हो जाता है – पाँच साल के बच्चे जैसी अवस्था ! सरल, उदार, अहंकार नहीं, किसी चीज पर आसक्ति नहीं, किसी गुण का वशीभूत नहीं, सदा आनन्दमय अवस्था है ! कभी वह पिशाचवत् बन जाता है – शुचि-अशुचि का भेद नहीं रहता, आचार अनाचार सब एक हो जाता है । फिर कभी वह जड़वत् हो जाता है – मानो कुछ देखकर स्तब्ध हो गया है ! इसी से किसी भी प्रकार का कर्म, किसी भी प्रकार की चेष्टा नहीं कर सकता ।
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क्या श्रीरामकृष्ण स्वयं की ही अवस्थाओं की ओर संकेत कर रहे हैं ?
श्रीरामकृष्ण(वैष्णव भक्त से)- ‘तुम और तुम्हारा’ – यह ज्ञान है; ‘मैं और मेरा’ – यह अज्ञान ।
“हे ईश्वर तुम कर्ता हो, मैं अकर्ता’ – यही ज्ञान है । ‘हे ईश्वर, सब कुछ तुम्हारा है; देह, मन, घर, परिवार, जीव, जगत् – यह सब तुम्हारा ही है, मेरा कुछ नहीं’ – इसी का नाम ज्ञान है ।
“जो अज्ञानी है, वही कहता है कि ईश्वर ‘वहाँ’ – बहुत दूर हैं । जो ज्ञानी है, वह जानता है कि ईश्वर ‘यहाँ’ – अत्यन्त निकट, हृदय के बीच अन्तर्यामी के रूप में विराजमान हैं, फिर उन्होंने स्वयं भिन्न भिन्न रूप भी धारण किये हैं ।”
(क्रमशः)
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