रविवार, 30 अगस्त 2020

= ३५९ =

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*#श्रीदादू०अनुभव०वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग सूहा २२(गायन समय दिन ९ से १२)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**काया बेली ग्रन्थ**
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३५९ - रँग ताल
काया मांहीं विषमी बाट, 
काया मांहीं औघट घाट ।
काया मांहीं पहण गांव, 
काया मांहीं उत्तम ठांव ॥१॥
काया मांहीं मण्डप छाजे, 
काया मांहीं आप विराजे ।
काया मांहीं महल अवास, 
काया मांहीं निश्चल वास ॥२॥
काया मांहीं राजद्वार, 
काया मांहीं बोल णहार ।
काया मांहीं भरे भण्डार, 
काया मांहीं वस्तु अपार ॥३॥
काया मांहीं नौ निधि होइ, 
काया मांहीं अठ सिधि सोइ ।
काया मांहीं हीरा साल, 
काया मांहीं निपजैं लाल ॥४॥
काया मांहीं माणिक भरे, 
काया मांहीं ले ले धरे ।
काया मांहीं रत्न अमोल, 
काया मांहीं मोल न तो ॥५॥
काया मांहीं कर्तार है, 
सो निधि जानैं नांहिं ।
दादू गुरुमुख पाइये, 
सब कुछ काया मांहिं ॥६॥
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**= काया माँही विषमी बाट =**
जैसे ब्रह्माँड में बदरी, केदारादि के मार्ग अति कठिन हैं, वैसे ही काया में ब्रह्म - प्राप्ति का मार्ग अति कठिन है ।
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**= काया माँहीं औघट घाट =**
जैसे बदरीनाथादि के मार्ग में दूर्गम घाटियां होती हैं, वैसे ही शरीर में ज्ञान के मार्ग में काम क्रोधादिक दुर्गम घाटियां हैं ।
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**= काया माँहीं पट्टण गाँव =**
ब्रह्माँड में जैसे पट्टण(पाटलीपुत्र) आदि विशाल नगर हैं और उनमें अनेक वस्तुयें प्राप्त होती हैं, वैसे ही काया में प्रभु - प्रेम, विचारादि नगर हैं, उनमें प्रभु द्वारा सब कुछ प्राप्त होता है, वो जैसे ब्रह्माँड में कोई ग्राम पहण (भूमि में मिलकर समतल) हो जाता है, वैसे ही काया में भी कोई विचार नष्ट हो जाता है ।
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**= काया मांहीं उत्तम ठांव =**
ब्रह्माँड में जैसे वैकुण्ठादि उत्तम स्थान हैं, वहां विष्णु आदि के दर्शन होते हैं, वैसे ही काया में अष्टदल - कमलादि उत्तम स्थान हैं, उनमें भगवान् के दर्शन होते हैं ।
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**= काया माँहीं मण्डप छाजे, काया मांही आप विराजे =**
जैसे ब्रह्माँड में लोग मँडप बनाकर उसमें बैठते हैं वैसे ही काया में मन वासनाओं का मँडप बनाकर उसमें स्थित रहता है वो काया में मन साधना रूप मँडप बनाता है, उसमें स्वयँ भगवान् विराजते हैं ।
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**= काया मांहीं महल अवास =**
जैसे ब्रह्माँड मेँ महल होते हैं, वैसे ही काया में अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय ये पँच कोश ही महल हैं ।
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**= काया मांहीं निश्चल वास =**
ब्रह्माँड में जैसे लोग काशी में कल्याणार्थ स्थिर निवास करते हैं, वैसे ही काया में ब्रह्म में वृत्ति स्थिरता रूप निश्चल निवास होता है ।
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**= काया मांहीं राज द्वार =**
जैसे लोक में राज द्वार होता है, उस द्वार से राजा के पास जाते हैं वैसे ही काया में दशम द्वार राज द्वार है, उसके द्वारा ही ब्रह्म रूप राजा को प्राप्त होते हैं ।
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**= काया मांहीं बोल णहार =**
जैसे ब्रह्माँड में वक्ता होते हैं वैसे ही काया में बोल ने वाला वाक् इन्द्रिय है वो उसका प्रेरक आत्मा है ।
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**= काया मांहीं भरे भँडार =**
जैसे लोक में नाना पदार्थों के भँडार भरे रहते हैं, वैसे ही काया में भी सब कला - गुण - ज्ञानादि के भँडार भरे हैं किन्तु उनके अज्ञान रूप ताले लगे हैं जो कलाज्ञ, गुणज्ञ और ज्ञानी लोगों द्वारा खोले जाते हैं, तब सब काया में ही मिलते हैं ।
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**= काया मांहीं वस्तु अपार =**
जैसे ब्रह्माँड में अपार वस्तुएं हैं वैसे ही काया में भी सप्तधातु, दैवीगुण, आसुर - गुण आदि अनन्त वस्तुयें हैं वो जिसका पार नहीं आता ऐसी परब्रह्म वस्तु जैसे ब्रह्माँड में है, वैसे ही काया में भी हैं ।
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**= काया मांहीं नौ निधि होइ =**
जैसे ब्रह्माँड में १ पद्म, २ महापद्म, ३ शँख, ४ मकर, ५ कच्छप, ६ मुकुन्द, ७ कुन्द, ८ नील, ९ वर्च्च:, ये नौ निधि हैं । वैसे ही काया में १ श्रवण, २ कीर्तन, ३ स्मरण, ४ पाद सेवन, ५ अर्चना, ६ वँदना, ७ दास्य, ८ सक्षय, ९ आत्म निवेदन, ये नवधा भक्ति ही नवनिधि हैं ।
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**= काया माँहीं अठ सिधि सोइ =**
जैसे ब्रह्माँड में १ अणिमा, २ महिमा, ३ लघिमा, ४ गरिमा, ५ प्राप्ति, ६ प्रकाम्य, ७ ईशत्व, ८ वशित्व, ये अष्ट सिद्धि हैं, वैसे ही काया में मन, बुद्धि, चित्त और पँच ज्ञानेन्द्रिय ये अष्ट सिद्धि हैं । 
जैसे लोक में अन्य १ सर्वज्ञता, २ दूर श्रवण, ३ पर काय प्रवेश, ४ वाक् सिद्धि, ५ कल्प वृक्षत्व, ६ सृजन शक्ति, ७ सँहार शक्ति, ८ ईशता, ९ अमरत्व, १० सर्वांग, ये दश सिद्धियाँ हैं, वैसे ही काया में १ इड़ा, २ पिंगला, ३ सुषुम्ना, ४ गाँधारी, ५ हस्तिजिव्हा, ६ पूषा, ७ यशस्विनी, ८ अलम्बुषा, ९ कुहू, १० शँखिनी, ये नाड़ियाँ ही दश सिद्धियाँ हैं । 
इनके स्थान क्रम से १ वाम नासिका, २ दक्षिण नासिका, ३ दोनों नासिका का मध्य भाग, ४ वाम नेत्र, ५ दक्षिण नेत्र, ६ दाहिना कान, ७ वाम कान, ८ मुख, ९ लिंग, १० गुदा हैं । ये अभ्यास के द्वारा सिद्धि प्रदाता होने से सिद्धियाँ हैं ।
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**= काया मांहीं हीरा साल =**
जैसे लोक में हीरों की दूकान होती है, वैसे ही काया में विचार रूप हीरों का साल(घर) बुद्धि है ।
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**= काया मांहीं निपजे लाल =**
लोक में जैसे खानियों से लाल निपजते हैं वैसे ही काया में भजनादि द्वारा मन इन्द्रियों की श्रेष्ठता, एकाग्रतादि लाल उत्पन्न होते हैं अर्थात् जैसे पत्थरों की खान से लाल निकलते हैं वैसे ही मन इन्द्रिय विषयों से निकल कर हरि की ओर लगता है तब लाल रूप ही हो जाता है ।
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**= काया मांहीं माणिक भरे =**
जैसे लोक में जौहरियों की पेटियों में माणिक्य भरे रहते हैं, वैसे ही काया में भी श्वास रूप माणिक्य भरे हैं ।
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**= काया मांहीं ले ले धरे =**
जैसे लोक में बाह्य पदार्थों को ले लेकर घर में धरते हैं वैसे ही साधक सँत विचारों को ले लेकर काया की बुद्धि में धरते हैं ।
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**= काया मांहीं रत्न अमोल, काया माँहीं मोल न तोल =**
जैसे लोक में अमूल्य रत्न होता है, उसका मोल - तो नहीं होता, वैसे ही काया में ज्ञान रूप अमूल्य रत्न हैं, उसका कोई मोल - तो नहीं वो जैसे ब्रह्माँड में - १ लक्ष्मी, २ कौस्तुभ, ३ पारिजात, ४ सुरा, ५ धन्वन्तरि, ६ चन्द्रमा, ७ कामधेनु, ८ ऐरावत हस्ति, ९ रँभा, १० सप्तमुखा उच्चै: श्रवा अश्व, ११ विष, १२ हरि धनुष, १३ शँख, १४ अमृत, ये १४ रत्न हैं । वैसे ही काया में १ भक्ति, २ शाँति, ३ ज्ञान, ४ सत्य बुद्धि, ५ श्रेष्ठ वचन, ६ अहँ बुद्धि, ७ अनाहत नाद, ८ अष्टांग योग, ९ सँतोष, १० काम, ११ मन, १२ धैर्य, १३ युक्ति, १४ गुरु शब्द, ये १४ रत्न हैं, कहा भी है -
**लक्ष्मी भक्ति, मणि शाँति, कल्पतरु ज्ञान विचारो ।**
**कामधेनु सतबुद्धि, बैन शुभ अमृत धारो ।**
**अहँ बुद्धि विष जान, शँख अनहद ध्वनि बाजै ।**
**धन्वन्तरि अष्टांग, चन्द्र सँतोष विराजै ।**
**सुरा काम, मद सप्तमुख हय, गज धीरज जानि येहु ।**
**तहां जुगति रँभा, शब्द गुरु, "नृसिंह" धनु, पहिचानि लेहु ।**
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**= काया मांही करतार है, सो निधि जानैं नाहिं =**
जैसे ब्रह्माँड में सृष्टि कर्ता ईश्वर है, वैसे ही काया में भी जीव सृष्टि का कर्ता जीव चेतन स्थित है । किन्तु सँपूर्ण सुखों के कोश उसके वास्तविक स्वरूप को नहीं जानता, इसी से जन्मादि क्लेश भोगता है ।
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**= दादू गुरु मुख पाइये, सब कुछ काया माँहिं =**
काया में सभी कुछ है किन्तु गुरु मुख द्वारा उसका परिचय प्राप्त करके खोजने से ही सब कुछ प्राप्त होता है, अन्यथा नहीं ।
(क्रमशः)

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