🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🌷 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🌷
भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
(#श्रीदादूवाणी ~ १६. मध्य का अंग)
.
*जहँ वेद कुरान की गम नहीं, तहाँ किया परवेश ।*
*तहँ कछु अचरज देखिया, यहु कुछ औरै देश ॥३२॥*
वहां पर शास्त्र आदि का भी प्रवेश नहीं हो सकता, क्योंकि श्रुति में ऐसा ही कहा है कि – वहाँ से वाणी मन भी लौट आते हैं । अतः वह तो आश्चर्यमय ही है ।
गीता में – “उसको देखने वाले उसको आश्चर्यमय ही देखते हैं । हम भी उसी देश के रहने वाले हैं अर्थात् उस ब्रह्म में समाधि लगाकर स्थित रहते हैं । इन पद्यों में श्रीदादूजी महाराज ने निर्विकल्प समाधि में स्थित ज्ञानी की दशा बतलाई है ।” योगवासिष्ठ में- “जिन्होंने परम प्रयोजनरूप परमात्म तत्व का ज्ञान प्राप्त कर लिया, उनके रागद्वेषादि सब दोष नष्ट हो जाते हैं । तथा समस्त अविद्या(काम क्रोधादि पापों) से तत्प्रयुक्त इन्द्रिय विकारों से तथा देहत्रयप्रयुक्त अहंता, ममता एवं शोक मोह से रहित होते हैं । वह ज्ञानी वीतहव्य मुनि जिस का बहुत कल तक अभ्यास किया गया था, उस अपने निर्मल सच्चिदानन्द परम पद को प्राप्त हो गये हैं ।” अतः साधक को उस निर्विकल्प समाधि में निर्विशेष ब्रह्म की “मैं ब्रह्म हूँ” ऐसी भावना करनी चाहिये ।
“सर्ववेदान्तसंग्रह में कहा है कि मैं निर्विकार, निराकार, निरन्जन, अनामय, सकल उपाधि धर्मों से अतीत, निष्कलंक, सर्वोपद्रव रहित, आद्यन्तहीन, वैश्व तैजस, प्राज्ञ आदि त्रिविधभेद से रहित पूर्ण ब्रह्म हूँ, ऐसी भावना करनी चाहिये ॥
.
*॥ घर वन ॥*
*ना घर रह्या न वन गया, ना कुछ किया कलेश ।*
*दादू मन ही मन मिल्या, सतगुरु के उपदेश ॥३३॥*
*काहे दादू घर रहै, काहे वन-खंड जाइ ।*
*घर वन रहिता राम है, ताही सौं ल्यौ लाइ ॥३४॥*
*दादू जिन प्राणी कर जानिया, घर वन एक समान ।*
*घर मांही वन ज्यों रहै, सोई साधु सुजान ॥३५॥*
*सब जग मांही एकला, देह निरंतर वास ।*
*दादू कारण राम के, घर वन मांहि उदास ॥३६॥*
कुछ मन्दबुद्धि वाले प्राणी गृहस्थ आश्रम की प्रशंसा करते हैं और कुछ वानप्रस्थ आश्रम की । तात्विक दृष्टि से विचार करने पर मालुम होता है कि परमात्मा न घर में रहता और न वन में, वह तो सर्वव्यापक है । अतः घर-वन का आग्रह त्याग कर घर में ही वन की तरह अनासक्त रह कर भगवान् को जो भजता है, वह ही ज्ञानी साधु है । क्योंकि जिसका अन्तःकरण मैला है, उसको बन में भी दोष पैदा हो सकते हैं । न घर में सुख है और न वन में सुख है । जो घर में सांसारिक सुख प्रतीत होता है, वह तो क्षणभंगुर होने से ज्ञानी की दृष्टि में तुच्छ हैं । मुमुक्षु भी जब तक देह इन्द्रिय आदि में अहंता ममता को नहीं त्यागता तब तक चाहे वेद वेदांगों का पारंगत विद्वान् ही क्यों न हो, परन्तु वह तो मुक्ति की वार्ता का भी अधिकारी नहीं है ।
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें