गुरुवार, 20 अगस्त 2020

*मानव की सीमाबद्धता*

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*प्राण हमारा पीव सौं, यों लागा सहिये ।* 
*पुहुप वास घृत दूध में, अब कासौं कहिये ॥* 
*(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)* 
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*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)* 
*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ* 
परिच्छेद ४४ 
*दक्षिणेश्वर में जे.एस.मिल और श्रीरामकृष्ण । मानव की सीमाबद्धता*
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श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर में शिवमन्दिर की सीढ़ी पर बैठे हैं । ज्येष्ठ मास, १८८३, ई. (जून, १८८३) । खूब गर्मी पड़ रही है । थोड़ी देर बाद सन्ध्या होगी । बर्फ आदि लेकर मास्टर आए और श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर उनके चरणों के पास शिवमन्दिर की सीढ़ी पर बैठे । 
श्रीरामकृष्ण(मास्टर के प्रति)- मणि मल्लिक की नातिन का स्वामी आया था । उसने किसी पुस्तक* में पढ़ा है, ईश्वर वैसे ज्ञानी, सर्वज्ञ नहीं जान पड़ते । नहीं तो इतना दुःख क्यों? और यह जो जीव की मौत होती है, उन्हें एक बार में मार डालना ही अच्छा होता, धीरे धीरे अनेक कष्ट देकर मारना क्यों ? जिसने पुस्तक लिखी है, उसने कहा है कि यदि वह होता तो इससे बढ़िया सृष्टि कर सकता था ! (*John Stuart Mill’s Autobiography) 
मास्टर विस्मित होकर श्रीरामकृष्ण की बातें सुन रहे हैं और चुप बैठे हैं । 
श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं- श्रीरामकृष्ण(मास्टर के प्रति)- उन्हें क्या समझा जा सकता है जी ? मैं तो कभी उन्हें अच्छा मानता हूँ और कभी बुरा । अपनी महामाया के भीतर हमें रखा है । कभी वह होश में लाते हैं, तो कभी बेहोश कर देते हैं । एक बार अज्ञान दूर हो जाता है, दूसरी बार फिर आकर घेर लेता है । तालाब का जल काई से ढँका हुआ है । पत्थर फेंकने पर कुछ जल दिखायी देता है, फिर थोड़ी देर बाद काई नाचते नाचते आकर उस जल को भी ढँक लेती है । 
“जब तक देहबुद्धि है, तभी तक सुख-दुःख, जन्म-मृत्यु, रोग-शोक हैं । ये सब देह के हैं, आत्मा के नहीं । देह की मृत्यु के बाद सम्भव है वे अच्छे स्थान पर ले जायें – जिस प्रकार प्रसव-वेदना के बाद सन्तान की प्राप्ति ! आत्मज्ञान होने पर सुख-दुःख, जन्म-मृत्यु स्वप्न जैसे लगते हैं । “हम क्या समझेंगे ? क्या एक सेर के लोटे में दस सेर दूध आ सकता है ? नमक का पुतला समुद्र नापने जाकर फिर खबर नहीं देता । गलकर उसी में मिल जाता है ।”
(क्रमशः)

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