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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🌷 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🌷
भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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(#श्रीदादूवाणी ~ १७. सारग्राही का अंग)
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*क्षीर नीर का संत जन, न्याव नबेरैं आइ ।*
*दादू साधु हंस बिन, भेल सभेले जाइ ॥६॥*
इस असार संसार में सार क्या है और असार क्या है? आत्मा किसको कहते हैं और अनात्मा क्या है, इस बात को सन्त ही जानते है । जैसे कि हंस क्षीर नीर विवेचन में चतुर है । लिखा है-
वेद और शास्त्रों का कोई पार नहीं, क्योंकि वे अनन्त हैं और प्राणी की आयु स्वल्प हैं । फिर विघ्न भी अनन्त हैं । अतः सब का सार निकाल कर जो असार है, उसको त्याग दे जैसे हंस पानी में से दूध को निकाल देता हैं ।
सार क्या है, इसके विषय में लिखा है- सत्संग भगवान् की भक्ति, तथा गंगास्नान, ये तीन ही इस असार संसार में सार कहलाते हैं । इसलिये अज्ञानी जीव को सारा संसार का ज्ञान न होने से अनात्म विषयों में ही रमण करता हुआ दुःखी होता है ।
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*दादू मन हंसा मोती चुणै, कंकर दिया डार ।*
*सतगुरु कह समझाइया, पाया भेद विचार ॥७॥*
सार-असार का विवेचन करने वाले संतों का मन जैसे हंस पत्थरों को त्याग कर मोती चुगता है, वैसे ही सांसारिक विषयों को पत्थर की तरह नीरस समझ कर त्याग देता है और विचार रूपी चोंच से आत्मचिन्तन रूप मोती को चुगता है । सार असार का ज्ञान तो सद्गुरु की कृपा से उनके द्वारा उपदिष्ट ज्ञान से ही प्राप्त होता है ।
श्रीभागवत में लिखा है- अनेक जन्म जन्मान्तरों के बाद यह मनुष्य शरीर धर्म अर्थ काम मोक्ष को देने वाला दुर्लभता से ही प्राप्त होता है, जो अनित्य हैं । इसको प्राप्त करके धीर मनुष्य को चाहिये कि जब तक यह मृत्यु के मुख में नहीं जाता, उससे पहले ही अपने मोक्ष का उपाय करले, क्योंकि ये विषयभोग तो दुसरें जन्मों में भी प्राप्त होते रहते हैं ।
अष्टावक्र गीता में- हे तात, यदि मुक्ति चाहता है तो इन विषयों को विष की तरह त्याग दो और क्षमा, नम्रता, दया, पवित्रता और सत्य इनको अमृत की तरह समझकर धारण करो ।
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*दादू हंस मोती चुणै, मानसरोवर जाइ ।*
*बगुला छीलर बापुड़ा, चुण चुण मछली खाइ ॥८॥*
*दादू हंस मोती चुगैं, मानसरोवर न्हाइ ।*
*फिर फिर बैसैं बापुड़ा, काग करंकां आइ ॥९॥*
महात्मा हंसों के तुल्य होते हैं । वे सत्संगरूपी मानसरोवर में स्नान करके ब्रह्मानन्दरूपी मोतियों को धारण करते हैं और काकबगुला जैसे कुसंगी पुरुष हैं, वे मछली की तरह सुखी अस्थि मांस जो निन्ध्य है, विषयवासनारूपी भोगों हैं को ही भोगते हैं और उनके मन की वासना भी भोगों द्वारा शान्त नहीं होती ।
महाभारत में- मनुष्य की कामना भोगों के द्वारा कभी शान्त नहीं होती । किन्तु अग्नि में घृत की आहुति देने पर जैसे अग्नि ज्यादा प्रज्ज्वलित होती है वैसे ही वासना भी बढ़ती जाती है । भर्तृहरिशतक में- भोगों को कोई भोग नहीं सकता किन्तु उन भोगों के द्वारा भोगने वाले ही भोगे जाते हैं ।
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*दादू हंस परखिये, उत्तम करणी चाल ।*
*बगुला बैसे ध्यान धर, प्रत्यक्ष कहिये काल ॥१०॥*
सन्त हंसों के तुल्य होते हैं और उनकी परीक्षा उनके उत्तम कर्मों से ही की जा सकती है, न कि वेशभूषा से अन्यथा बगुला भी हंस की तरह सफेद होता है किन्तु वह मछली के मांस की इच्छा करता है, सन्त परमात्मा को चाहते हैं यह भेद स्पष्ट ही है अतः बगुला मछली के लिये मृत्युतुल्य है और दुःख देने वाला है अतः बगुला के सदृश दुष्टों का संग मत करो । लिखा है कि-
दुर्जन यद्यपि कितना ही मीठा बोले किन्तु वह विश्वास के योग्य नहीं है । क्योंकि उस की जिव्हा पर मिठास है परन्तु उसका हृदय तो हलाहल विष से भरा पड़ा है ।
दुर्जन विद्या से भूषित होने पर भी त्यागने के योग्य हैं । जैसे मणिधर सर्पमणि से भूषित होने पर भी वह भयंकर ही होता है । अतः केवल बाह्य आकार से साधुत्व की परीक्षा दुर्लभ है । किन्तु उसके आचरण से ही ठीक परीक्षा होती है ।
(क्रमशः)
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