गुरुवार, 27 अगस्त 2020

*मनोहर सहस्त्रदल कमल*

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*दादू साधन सब किया, जब उनमन लागा मन ।*
*दादू सुस्थिर आत्मा, यों जुग जुग जीवैं जन ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ सजीवन का अंग)*
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*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)*
*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ*
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रामलाल ने फिर गाया-
(भावार्थ)- “हे भवानी, मैंने तुम्हारा भयहर नाम सुना है, इसीलिए तो अब मैंने तुम पर अपना भार सौंप दिया है । अब तुम मुझे तारो या न तारो ! माँ, तुम ब्रह्माण्डजननी हो, ब्रह्माण्डव्यापिनी हो । तुम काली हो या राधिका – यह कौन जाने ! हे जननी, तुम घट घट में विराजमान हो । मूलाधारचक्र के चतुर्दल कमल में तुम कुलकुण्डलिनी के रूप में विद्यमान हो । तुम्हीं सुषुम्ना मार्ग से ऊपर उठती हुई स्वाधिष्ठानचक्र के षड्दल तथा मणिपुरचक्र के दशदल कमल में पहुँचती हो । 
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हे कमलकामिनी, तुम ऊर्ध्वोर्ध्व कमलों में निवास करती हो । हृदयस्थित अनाहतचक्र के द्वादशदल कमल को अपने पादपद्म के द्वारा प्रस्फुटित कर तुम हृदय के अज्ञानतिमिर का विनाश करती हो । इसके ऊपर कण्ठस्थित विशुद्धचक्र में धूम्रवर्ण षोडशदल कमल है । इस कमल के मध्यभाग में जो आकाश है, वह यदि अवरुद्ध हो जाय तो सर्वत्र आकाश ही रह जाता है । 
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इसके ऊपर ललाट में अवस्थित आज्ञाचक्र के द्विदल कमल में पहुँचकर मन आबद्ध हो जाता है – वह वहीँ रहकर मजा देखना चाहता है, और ऊपर नहीं उठना चाहता । इससे ऊपर मस्तक में सहस्त्रारचक्र है । वहाँ अत्यन्त मनोहर सहस्त्रदल कमल है, जिसमें परमशिव स्वयं विराजमान हैं । हे शिवानी, तुम वही शिव के निकट जा विराजो ! 
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हे माँ, तुम आद्याशक्ति हो । योगी तथा मुनिगण तुम्हारा नगेन्द्रनन्दिनी उमा के रूप में ध्यान करते है । तुम शिव की शक्ति हो । तुम मेरी वासनाओं का हरण करो ताकि मुझे फिर इस भवसागर में पतित न होना पड़े । माँ, तुम्हें पंचतत्त्व हो, फिर तुम तत्त्वों के अतीत हो । तुम्हें कौन जान सकता है ! हे माँ, संसार में भक्तों के हेतु तुम साकार बनी हो, परन्तु पंचेन्द्रियाँ पंचतत्त्व में विलिन हो जाने पर तुम्हारे निराकार स्वरूप का ही अनुभव होता है ।” 
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रामलाल जिस समय गा रहे थे- ‘इसके ऊपर कण्ठस्थित विशुद्धचक्र में धूम्रवर्ण षोडशदल कमल है । इस कमल के मध्यभाग में जो आकाश है वह यदि अवरुद्ध हो जाय तो सर्वत्र आकाश ही रह जाता है’ – उस समय श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से कहा-
“यह सुनो, इसी का नाम है निराकार सच्चिदानन्द-दर्शन । विशुद्धचक्र का भेदन होने पर ‘सर्वत्र आकाश ही रह जाता है ।”
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मास्टर- जी हाँ ।
श्रीरामकृष्ण- इस माया मय जीव-जगत् के पार हो जाने पर तब कहीं नित्य स्वरूप में पहुँचा जा सकता है । नादभेद होने पर ही समाधि लगती है । ओंकार-साधना करते करते नादभेद होता है और समाधि लगती है ।
अधर ने फलमिष्टान्न आदि के द्वारा श्रीरामकृष्ण की सेवा की । श्रीरामकृष्ण ने कहा, “आज यदु मल्लिक के यहाँ जाना पड़ेगा ।”
(क्रमशः)

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