सोमवार, 24 अगस्त 2020

*५. परचा कौ अंग ~ ३१७/२०*

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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*५. परचा कौ अंग ~ ३१७/२०*
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जगजीवन छोडौ१ छिल्यौ, बरख्या अम्रित नूर ।
आनंद मंगल अति घणां२, रांम सकल भरपूर ॥३१७॥
(१. छोड़ो-वृक्ष की शाखा की मोटी त्वचा) (२. अति घणां-बहुत अधिक)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिस प्रकार वृक्ष की छाल छीलने पर वृक्ष को कष्ट तो होता है किन्तु उसमें से वृक्ष का अमृत स्त्रावित होता है । इसी प्रकार साधना में कष्ट तो है किन्तु आनंद मंगल भी भरपूर है । वहां सर्वत्र राम भरपूर रहते हैं ।
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तिलदह३ निरखि निवास हरि, सुलिता४ नीझर नीर ।
कहि जगजीवन प्रेम जल, प्रांण पीवै करि सीर५ ॥३१८॥
(३. तिलहद-सूक्ष्म) {४. सुलिता-सरिता(=नदी)}
(५. सीर-साझा)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सूक्ष्म देखकर ही प्रभु शरण में लेते हैं । नदी जल ग्रहण करती है । संत कहते हैं उस प्रेमजल के पान को प्राण सबसे साझा कर पान करते हैं ।
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नव खंड६ प्रिथवी नांम मंहि, सहजैं आवै हाथ ।
कहि जगजीवन क्रोध तजि, रहै रांम के साथ ॥३१९॥
{६. नव खंड - इस काया रूप पृथ्वी के ९ खन्ड(चक्र) हैं -१. आधार(ब्रह्मचक्र), २. स्वाधिष्ठान, ३. नाभिचक्र(मणिपूरक), ४. अनाहतचक्र, ५. कण्ठचक्र, ६. तालुचक्र, ७. भूचक्र, ८. ब्रह्मरन्ध्र एवं ९. आकाशचक्र(विस्तार के लिये दृ.- श्रीगोरक्षनाथ कृत सिद्धसिद्धान्त पद्धति का द्वितीय उपदेश)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि पृथ्वी के नौ विभाग परमात्मा के नामाधीन है । जो जन क्रोध त्याग देते हैं वे उस परमात्मा के संग ही रहते हैं ।
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जे आराधै रांमजी, चित्त निरोधै सास ।
ते विचित्र चित्त मंहि बसे, सु कहि जगजीवनदास ॥३२०॥ 
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो चित में परमात्मा को ध्याते हैं व हर श्वास को ध्यान से रोक कर स्मरण में लाते हैं वे अनोखे जीव परमात्मा के ध्यान में रहते हैं ।
(क्रमशः)

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