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स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“तृतीयोल्लास” २५/२७)*
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*अम्बरीष और दुर्वासा ॠषि*
संत बैर तैं जीव दुख पावै, काल पाश तै कौन छुडावै ।
दुर्वासा तीनूं पुर फिरिया,भयै सहाइ संतनि पग धरिया ॥२५॥
संतों के साथ बैर या द्वेष करने से प्राणी अनेक कष्ट प्राप्त करना है उस संत द्रोही को काल के बन्धन से कौन छुड़ा सकता है । दुर्वासा ॠषि अभिमान के कारण संत अंबरीष से द्वैष किया तो तीनों लोकों में सभी देवताओं के पास शरण में जाने पर भी कालपाश से उनका छुटकारा नहीं हुआ । अम्बरीष के शरण में जाने पर ही उनको छुटकारा मिला । महाभारत में दुर्वासा और अम्बरीष की कथा है देखो महाभारत ॥२५॥
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हिर्नाकुस संत वैर विचारा, कीनी घात रु उदर विदारा ।
रावन दोष करि चाहया दंडू, अपजस पृथ्वी दहा सिर खंडू ॥२६॥
हिरण्य कश्यप ने भक्त प्रहलाद के साथ वैर कर उनको सताया तो नृसिंह रूप भगवान ने घात लगाकर उसका पेट नखों से फाड़ दिया, रावण ने सती सीता का अपहरण रुप पाप किया तो उसे पृथ्वी पर अपयश मिला और दश शिर कटने का दण्ड प्राप्त हुआ ॥२६॥
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ऐसी भांति चले हैं संतू, पैड पैड पर सुमरे भगवंतू ।
गछत गछत गये सनमुख कालू, गोविंद जपैरु वचन रसालू ॥२७॥
इस प्रकार दोनों संत चलते चलते उस काल के सामने रक्षक चौकी के पास पहुंच गये वे कदम कदम पर भगवान का स्मरण करते चल रहे थे । ब्रह्म रस युक्त गोविन्द का जाप करते रहे ॥२७॥
(क्रमशः)
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