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*सेवा सुकृत सब गया, मैं मेरा मन मांहि ।*
*दादू आपा जब लगै, साहिब मानै नांहि ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)*
*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ*
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भाव का किंचित उपशम होने पर श्रीरामकृष्ण कहते हैं, “माँ का प्रसाद खाऊँगा ।” तब आपको सिंहवाहिनी का प्रसाद ला दिया गया ।
यदु मल्लिक बैठे हैं । पास ही कुछ मित्र बैठे हुए हैं; कुछ खुशामद करनेवाले मुसाहब भी हैं ।
यदु मल्लिक की ओर मुँह कर श्रीरामकृष्ण कुर्सी पर बैठे हैं और हँसते हुए बातचीत कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण के साथ आये हुए भक्तों में से कोई कोई बाजू के कमरे में हैं । मास्टर तथा और दो-एक भक्त श्रीरामकृष्ण के पास ही बैठे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण(सहास्य)- अच्छा, तुम मुसाहब क्यों रखते हो ?
यदु(सहास्य)- मुसाहब रखने में क्या हर्ज है ! क्या तुम उद्धार नहीं करोगे ?
श्रीरामकृष्ण(सहास्य)- शराब की बोतलों के आगे गंगा भी हार मानती है !
यदु ने श्रीरामकृष्ण के सम्मुख घर में चण्डी-गान का आयोजन करने का वचन दिया था । बहुत दिन बीत गये, पर चण्डी-गान नहीं हुआ ।
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श्रीरामकृष्ण- क्यों जी, चण्डी-गान का क्या हुआ ?
यदु- कई तरह के काम-काज थे, इसीलिए इतने दिन नहीं हो पाया ।
श्रीरामकृष्ण- यह क्या ! मर्द आदमी की एक जबान चाहिए ! ‘पुरुष की बात, हाथी का दाँत ।’ मर्द की जबान एक चाहिए – क्यों, ठीक है न ?
यदु(सहास्य)- सो तो ठीक है ।
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श्रीरामकृष्ण- तुम बड़े हिसाबी आदमी हो । बहुत हिसाब करके काम करते हो । ब्राह्मण की गाय-खाये कम, गोबर ज्यादा करे, और धर-धर दूध दे ! (सब हँसते हैं ।)
कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण यदु से कहते हैं, “समझ गया । तुम रामजीवनपुर की सिल के जैसे हो – आधी गरम, आधी ठण्डी । तुम्हारा मन ईश्वर की भी ओर है, और संसार की भी ओर ।
श्रीरामकृष्ण ने एक–दो भक्तों के साथ यदु के मकान पर फल, मिष्टान्न, खीर आदि प्रसाद ग्रहण किया । अब आप खेलात घोष के यहाँ जायेंगे ।
(क्रमशः)
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