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*मीन मगन मांहीं रहैं, मुदित सरोवर मांहिं ।*
*सुख सागर क्रीड़ा करैं, पूरण परिमित नांहिं ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. २४६)*
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*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)*
*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ*
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*निराकार ध्यान और श्रीरामकृष्ण*
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मार्ग में मोटी शील का मन्दिर है । श्रीरामकृष्ण बहुत दिनों से मास्टर से कहते आए हैं कि एक साथ आकर इस मन्दिर की झील को देखेंगे – यह सिखलाने के लिए कि निराकार ध्यान कैसे करना चाहिए ।
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श्रीरामकृष्ण को खूब सर्दी हुई है, तथापि भक्तों के साथ मन्दिर देखने के लिए गाड़ी से उतरे ।
मन्दिर में श्रीगौरांग की पूजा होती है । अभी सन्ध्या होने में कुछ देर है । श्रीरामकृष्ण ने भक्तों के साथ गौरांग-मूर्ति के सम्मुख भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया ।
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अब मन्दिर के पूर्व की ओर जो झील है; उसके घाट पर आकर झील का पानी और मछलियों को देख रहे हैं । कोई इन मछलियों की हिंसा नहीं करता । कुछ चारा फेंकने पर बड़ी बड़ी मछलियाँ झुण्ड के झुण्ड सामने आकर खाने लगती हैं – फिर निर्भय होकर आनन्द से पानी में घूमती-फिरती हैं ।
श्रीरामकृष्ण मास्टर से कहते हैं, “यह देखो कैसी मछलियाँ हैं ! चिदानन्द-सागर में इन मछलियों की तरह आनन्द से विचरण करो ।”
(क्रमशः)
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