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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*५. परचा कौ अंग ~ ३०१/३०४*
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अस्त४ तुचा५ अबिगत परसि, आतम अंग समाइ ।
कहि जगजीवन भजन करि, सतगुरु करै कमाइ ॥३०१॥
(४. अस्त-अस्थि) {५. तुचा-त्वक्(=चर्म)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि ये देह में जो अस्थि, त्वचा है उसे प्रभु परमात्मा को समर्पित करें । सारे सत्कर्म करें जो शरीर से हो सकते हैं । सतगुरु महाराज कहते हैं कि यह भजन ही सच्ची कमाई है ।
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हीरा बसतर६ स्यूँ बंध्या, कोटि बसत७ की आस ।
बसत र बसत७ समान सौं, सु कहि जगजीवनदास ॥३०२॥
{६. बसतर-वस्त्र(=कपड़ा)} {७. बसत-वस्तु(=मूल्यवान् पदार्थ)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हीरा स्वयं के वस्त्र में बंधा है फिर भी हम अन्य वस्तुओं की चाह करते हैं । कोइ भी वस्तु उस मूल्यवान वस्त्र जो हमारी देह है जिसमें राम नाम का हीरा है जैसी नहीं हो सकती ।
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अैसैं तन मन नांउ भजि, हरि नहिं राखै कोइ ।
कहि जगजीवन रांमजी, तब लगि तेज न जोइ८ ॥३०३॥
(८. तब लगि तेज न जोइ - तब तक यह शरीर तेजपुंजमय नहीं हो सकता)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि ऐसे तन मन से स्मरण करें कि जैसे परमात्मा किसी को न रखा हो वैसै हमें कृपा कर रखें और तब तक स्मरण करते रहें जब तक यह शरीर तेज पुंज मय नहीं हो जाता ।
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झरणां चालै प्रेम का, निरमल नूर निवास ।
मनसा मछली तहँ रमैं, सु कहि जगजीवनदास ॥३०४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रेम का स्त्रोत बह रहा है जिसमें निर्मल प्रभु का निवास है । वहाँ मन रुपी मछली निवास करती है । आनंदित रहती है ।
(क्रमशः)
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