सोमवार, 24 अगस्त 2020

*सच्चिदानन्द मायारूपी काई से ढका*

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*बाजी चिहर रचाय कर, रह्या अपरछन होइ ।* 
*माया पट पड़दा दिया, तातैं लखै न कोइ ॥* 
*(श्री दादूवाणी ~ माया का अंग)* 
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*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)* 
*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ* 
श्रीरामकृष्ण- ईश्वर ने अपनी माया से सब कुछ ढक रखा है – कुछ जानने नहीं देते । कामिनी और कांचन ही माया है । इस माया को हटाकर जो ईश्वर के दर्शन करता है, वही उन्हें देख पाता है । एक आदमी को समझाते समय मुझे ईश्वर ने एक अद्भुत दृश्य दिखलाया । अचानक सामने देखा उस देश का एक तालाब, और एक आदमी ने काई हटाकर उससे जल पी लिया । जल स्फटिक की तरह साफ था । इससे यह सूचित हुआ कि वह सच्चिदानन्द मायारूपी काई से ढका हुआ है, - जो काई हटाकर जल पीता है, वही पाता है । 
“सुनो, तुमसे बड़ी गूढ़ बातें कहता हूँ । झाउओ के तले बैठे हुए देखा कि चोर दरवाजे का-सा एक दरवाजा सामने है । कोठरी के अन्दर क्या है, यह मुझे दिखायी नहीं पड़ा । मैं एक नहरनी से छेद करने लगा, पर कर न सका । मैं छेदता रहा, पर वह बार बार भर जाता था । परन्तु एक बार इतना बड़ा छेद बना !” 
यह कहकर श्रीरामकृष्ण चुप रहे । फिर बोलने लगे – “ये सब बड़ी ऊँची बातें हैं । यह देखो, कोई मानो मेरा मुँह दबा देता है । 
“योनि में ईश्वर का वास प्रत्यक्ष देखा था ! – कुत्ता और कुतिया के समागम के समय देखा था । 
“ईश्वर के चैतन्य से जगत् चैतन्यमय है । कभी कभी देखता हूँ कि छोटी छोटी मछलियाँ में वही चैतन्य खेल रहा है ।” 
गाड़ी शोभाबाजार के चौराहे पर से दरमाहट्टा के निकट पहुँची । श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं- 
“कभी कभी देखता हूँ कि वर्षा में जिस प्रकार पृथ्वी जल से ओतप्रोत रहती है, उसी प्रकार इस चैतन्य से जगत् ओतप्रोत है । 
“इतना सब दिखलायी तो पड़ता है, पर मुझे अभिमान नहीं होता ।” 
मणि(सहास्य)- आपका अभिमान कैसा ! 
श्रीरामकृष्ण- शपथ खाकर कहता हूँ, थोड़ा भी अभिमान नहीं होता । 
(क्रमशः)

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