मंगलवार, 18 अगस्त 2020

= *वक्त ब्यौरा का अंग १२२(९/१२)* =

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*दादू करणहार जे कुछ किया,*
*सो बुरा न कहना जाइ ।*
*सोई सेवक संत जन, रहबा राम रजाइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*वक्त ब्यौरा का अंग १२२*
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देखि पराये भाग को, रोवहि सदा अभाग ।
रज्जब वह आनन्द में, उनके दिल दुख दाग१ ॥९॥
दूसरे के भाग्य को देखकर अभागे मनुष्य ही "इनको इतना क्यों दे दिया ?" ऐसा सोचते हुये रोते हैं, वह भाग्यशाली तो आनन्द में रहता है और उन अभागों के हृदय दु:ख से जलते१ रहते हैं ।
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शठ१ शुनहा२ निश दिन भुसै, आँख्यों देखि अतीत३ ।
रज्जब रिजक४ न धटि बध्या, वह बकि विकल व्यतीत५ ॥१०॥
जैसे कुत्ता२ साधु३ को आँखों से देखकर भूकता है, वैसे ही मूर्ख१ बकते हैं किन्तु उनके बकने से किसी की जीविका४ न घटती है और न बढती है, वह भी बककर व्याकुल होता हुआ एक दिन समाप्त५ हो जाता है ।
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भौंक हिं गोरख दत्त को, कुत्तों की यहु बाणि१ ।
पै सिरज्या सरके नहीं, हासिल होय न हाणि ॥११॥
जैसे कुत्तों का यह स्वभाव१ है कि वे गोरक्षनाथ और दत्तात्रेय को भी भूकते ही हैं, वैसे ही दुष्टों को भी बकने का स्वभाव है, वे सभी को बकते हैं किन्तु उनके बकने से प्रभु ने जिसके लिये जो रच दिया है, वह उसके हटता नहीं और प्राप्त हुये की हानि नहीं होती ।
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विभुति१ बंदगी२ हरि हुक्म, नरहुं प्राप्त जो होय ।
जन रज्जब थोड़ी बहुत, दोष न दीजे कोय ॥१२॥
हरि की आज्ञा से संपत्ति१ और भक्ति२ नर को प्राप्त हो, वह कम हो वा अधिक हो उसके लिये दोष न दे ।
(क्रमशः)

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