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*तहँ वचन अमोलक सब ही सार,*
*तहँ बरतै लीला अति अपार ।*
*उमंग देइ तब मेरे भाग,*
*तिहि तरुवर फल अमर लाग ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. ३६९)*
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*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)*
*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ*
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(२)
*अधर सेन के मकान पर, कीर्तनानन्द में*
श्रीरामकृष्ण अधर के मकान पर आए हैं । बैठकखाने में रामलाल, मास्टर, अधर तथा कुछ और भक्त आपके पास बैठे हुए हैं । मुहल्ले के दो-चार लोग श्रीरामकृष्ण को देखने आए हैं । राखाल के पिता कलकत्ते में रहते हैं – राखाल वहीँ हैं ।
श्रीरामकृष्ण(अधर के प्रति)- क्यों, राखाल को खबर नहीं दी ?
अधर- जी, उन्हें खबर दी है ।
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राखाल के लिए श्रीरामकृष्ण को व्यग्र देखकर अधर ने राखाल को लिवा लाने के लिए एक आदमी के साथ अपनी गाड़ी भिजवा दी ।
अधर श्रीरामकृष्ण के पास आ बैठे । आप के दर्शन के लिए अधर आज व्याकुल हो रहे थे । आज आपके यहाँ आने के बारे में पहले से कुछ निश्चित नहीं था । ईश्वर की इच्छा से ही आप आ पहुँचे हैं ।
अधर- बहुत दिन हुए आप नहीं आए थे । मैंने आज आपको पुकारा था, - यहाँ तक कि आँखों से आँसू भी गिरे थे ।
श्रीरामकृष्ण(प्रसन्न होकर हँसते हुए)- क्या कहते हो !
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शाम हुई । बैठकखाने में बत्ती जलायी गयी । श्रीरामकृष्ण ने हाथ जोड़कर जगज्जननी को प्रणाम कर मन ही मन शायद मूलमन्त्र का जाप किया । अब मधुर स्वर से नाम-उच्चारण कर रहे हैं – ‘गोविन्द ! गोविन्द ! सच्चिदानन्द ! हरि बोल ! हरि बोल !’ आप इतना मधुर नाम-उच्चारण कर रहे हैं कि मानो मधु बरस रहा है ! भक्तगण निर्वाक् होकर उस नामसुधा का पान कर रहे हैं ।
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रामलाल गाना गा रहे हैं-
(भावार्थ)- “हे माँ हरमोहिनी, तूने संसार को भुलावे में डाल रखा है । मूलाधार महाकमल में तू वीणावादन करती हुई चित्तविनोदन करती है । महामन्त्र का अवलम्बन कर तू शरीररूपी यन्त्र के सुषुम्नादि तीन तारों में तीन गुणों के अनुसार तीन ग्रामों में संचरण करती है । मूलाधारचक्र में तू भैरव राग में अवस्थित है; स्वाधिष्ठानचक्र के षड्दल कमल में तू श्री राग तथा मणिपूरचक्र में मल्हार राग है । तू वसन्त राग के रूप में हृदयस्थ अनाहतचक्र में प्रकाशित होती है । तू विशुद्धचक्र में हिण्डोल तथा आज्ञाचक्र में कर्णाटक राग है । तान-मान-लय-सुर के सहित तू मन्द्र-मध्य-तार इन तीन सप्तकों का भेदन करती है । हे महामाया, तूने मोहपाश के द्वारा सब को अनायास बाँध लिया है । तत्त्वाकाश में तू मानो स्थिर सौदामिनी की तरह विराजमान है । ‘नन्दकुमार’ कहता है कि तेरे तत्त्व का निश्चय नहीं किया जा सकता । तीन गुणों के द्वारा तूने जीव की दृष्टि को आच्छादित कर रखा है ।”
(क्रमशः)
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