बुधवार, 9 सितंबर 2020

= १०४ =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*गर्वै बहुत विनाश है, गर्वै बहुत विकार ।*
*दादू गर्व न कीजिये, सन्मुख सिरजनहार ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ पद्यांश. ४५)*
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साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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ऋषिकेश में एक अवधूत गंगा में मूत्र त्याग किया करता था ।
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दूसरे साधु कहते - "तुम ऐसा क्यों करते हो ?"
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अवधूत - "इसमें क्या है ? जैसा यह पानी है वैसा ही गंगा का पानी है ।"
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समय पा कर अवधूत बीमार हुआ मृत्यु क्षण समीप था, अवधूत बोला - "मुझे गंगाजल पिलाओ ।"
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समीप के खड़े एक साधु ने अवधूत के देखते हुए एक नारियली में मूत्र लेकर दिया । अवधूत ने शिर हिला दिया ।
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साधु बोला - "जैसा यह जल वैसा ही गंगाजल इसमें क्या भेद है ?"
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यह सुनकर अवधूत रोता हुआ बोला - "वह तो मेरा पाखण्ड ही था वास्तव में अभेद दृष्टि न थी ।
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दंभी को भी अंत में, होता पश्चाताप ।
मूत्र न पीया सिर हिला, रोया अपने आप ॥११७॥

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