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*#श्रीदादू०अनुभव०वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग वसँत २३(गायन समय प्रभात ३ से ६ तथा वसँत ॠतु)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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३६६ - **करुणा विनती** । तेवरा ताल
मोहन दुख दीरघ तूँ निवार,
मोहि सतावै बारँबार ॥टेक॥
काम कठिन घट रहे मांहिं,
तातैं ज्ञान ध्यान दोउ उदय नांहिं ।
गति मति मोहन विकल मोर,
तातैं चित्त न आवै नाम तोर ॥१॥
पाँचों द्वन्द्वर देह पूरि,
तातैं सहज शील सत रहें दुरि ।
सुधि बुधि मेरी गई भाज,
तातैं तुम विसरे महाराज ॥२॥
क्रोध न कबहूं तजै संग,
तातैं भाव भजन का होइ भँग ।
समझि न काई मन मँझारि,
तातैं चरण विमुख भये श्री मुरारि ॥३॥
अंतरजामी कर सहाइ,
तेरो दीन दुखित भयो जन्म जाइ ।
त्राहि त्राहि प्रभु तूँ दयाल,
कहै दादू हरि कर संभाल ॥४॥
विरह - दु:ख पूर्वक विनय कर रहे हैं - हे विश्व - विमोहन भगवान् ! यह जन्म - मरण रूप विशाल दु:ख मुझे बारँबार व्यथित कर रहा है, आप इसे दूर करें ।
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जीतने में अति कठिन काम अन्त:करण में रहता है इसलिए उसमें न तो ध्यान करने की योग्यता प्रकट होती है और न आपके स्वरूप का ज्ञान ही प्रकट होता है । हे मोहन ! मेरी बुद्धि आपके स्वरूप सम्बन्धी विचारों में जाती है, तब कामादि उसे व्याकुल कर देते हैं, इससे आपका नाम चित्त पर आता ही नहीं ।
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पाँचों ज्ञानेंद्रियें चपल रहती हैं तथा राग - द्वेषादि द्वन्द्व अन्त:करण में भरे रहते हैं । इससे निर्द्वन्द्वता, शील और सत्य अन्त:करण से दूर ही रहते हैं । मेरी निर्मल बुद्धि(ज्ञान) मेरे हृदय से भाग गई है, इसी से हे महाराज ! मैं आपको भूल गया हूं ।
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क्रोध कभी भी मेरा साथ नहीं छोड़ता, इससे श्रद्धा – भक्ति नष्ट हो जाती है । मन में पाप रूप काई होने से सुविचार स्थिर नहीं रहते, आने पर भी फिसल जाते हैं । इससे हे श्री मुरारे ! मेरे मन बुद्धि आदि आपके चरणों से विमुख हो रहे हैं ।
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हे अन्तर्यामी ! मैं आपका हूं, अति दीन दुखित हो रहा हूं । इसी अवस्था में ही मेरा जन्म व्यतीत हो रहा है । मेरी सहायता करो रक्षा करो, रक्षा करो । प्रभो ! आप दयालु हैं, मैं आप से विनय कर रहा हूं, मेरी संभाल करिये ।
(क्रमशः)
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