शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

दादू साधु शब्द सों मिल रहै १०/६४

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*मन का अंग १०/६४*
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*दादू साधु शब्द सों मिल रहै, मन राखे बिलमाइ ।* 
* साधु शब्द बिन क्यों रहे, तब ही बीखर जाइ ॥६४॥* 
प्र. दृष्टांत - 
साह पुत्र मदन वश नारी, नग परखत अवस्था गुजारी । 
यों जो साधु शब्द मन लावे, तो पति परमेश्वर सहजैं पावै ॥८॥ 
एक जौहरी साहूकार का पुत्र विदेश जाने लगा तब उसकी पत्नी ने उसे कहा - आप तो जा रहे हैं और मेरी अवस्था इस समय ऐसी है कि को अवलम्बन चाहिये । तब जौहरी के पुत्र ने अपनी पत्नी को बहुत से रत्न देकर कहा - तुमको रत्नों की परीक्षा का कु़छ तो अभ्यास है ही, उस अभ्यास को इन रत्नों की परीक्षा करते हुये बढ़ओ । इस कार्य में लगी रहने से तुम्हारा समय अनायास ही निकल जायगा । फिर मैं आ ही जाऊंगा । उस बाई ने उक्त प्रकार ही किया और उसका समय सुगमता से निकल गया । उक्त प्रकार ही जो संतों के शब्दों का विचार करता है, उसका मन प्रभु में लगकर प्रभु को ही प्राप्त होता है । 
द्वितीय दृष्टांत - 
संत ग्राम बाहर रहै, कथा श्रवण को जाइ । 
संत शब्द लिख ठीकरी, मन बिलमावे आइ ॥९॥ 
एक संत ग्राम के बाहर रहते थे और एक संत ग्राम में रहते थे । ग्राम वाले संत प्रतिदिन भक्तों को भगवन् कथा सुनाते रहते थे । उसे श्रवण करने को ग्राम के बाहर रहने वाले संत भी आते थे और सुने हुये संतों के शब्दों की अपने आसन पर आकर ठीकरियों पर लिखते थे । कोई पू़छता कि यह क्या कर रहे हो ? तो कहते थे संतों के शब्दों द्वारा मन को भगवान् में लगाता हूँ । उक्त संत के समान ही सुनी हुयी कथा के मुख्य - मुख्य शब्दों के मनन द्वारा मन को भगवान् में लगाना चाहिये । यही उक्त ६४ की साखी में कहा है । बिना साधु शब्दों के मन तत्काल इधर - उधर ही जाता है । 
(क्रमशः)

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