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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*६. जरणां कौ अंग ~ ५/८*
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अंतर जरै अबिगत परसि, सबद सु बैसुनि६ साखि ।
वस्तु७ जरै मन मसत कर, जगजीवन रस चाखि ॥५॥
{६. बैसुनि - वैष्णव(भक्त) की} (७. वस्तु - परम तत्त्व)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अतंर में यदि प्रभु का अनुभव समाया है और भक्त जन की साखी शब्द का स्पर्श मन तक है तो वह जीव मस्त है उसका जीवन सार्थक है । उसने जीवन का भरपूर आस्वादन लिया है ।
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जेमणां खाइ तेमणां८ जरे, नव दस तेरह पाइ ।
कहि जगजीवन सेर में, कोई जन रहै समाइ ॥६॥
(८. जेमणां तेमणां-कच्चा पक्का भोजन)
संतजगजीवन कहते हैं कि समायी के अनुसार कोइ जन कच्चा पक्का खाकर तुष्ट है तो कोइ नो, दस, तेरह की कामना करता है और कोइ सेर भर में समायी कर लेते हैं ।
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कहि जगजीवन नाद जारि, नूर जरै भजि नांम ।
आप बिलाणै९ आप लहै, अकल निरंजन रांम ॥७॥
(९. बिलाणै - नाश करे)
संतजगजीवन जी कहते है कि नाद जगा कर नूर ओर तेज में समाये और राम नाम का स्मरण करे प्रभु आप ही मिटावनहार व आप ही सृजनकर्ता हैं ।
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कहि जगजीवन व्यंद१० जरि, नाद जरै भजि नांम ।
बस्तु बराबर बसत करि, साँच लहै सब ठांम ॥८॥
(१०. व्यंद - विन्दु(=वीर्य)} संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव में जैसे पदार्थ धातु समाया रहता है वैसे ही स्मरण से अनाहत नाद समाये । सब वस्तु बराबर करे । व सभी स्थान पर सत्य रहे ।
(क्रमशः)
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