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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*मन का अंग १०/७८*
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दादू ध्यान धरे का होत है, जे मन नहिं निर्मल होइ ।
तो बक सब हीं उद्धरैं, जे इहिं विधि सीझे कोइ ॥७८॥
दृष्टांत -
चार ठगारे भेष धरि, ग्राम खिनाया एक ।
सेठ ल्याय केशो कहा, धनक - बनक जानेक ॥१०॥
एक नगर में एक धर्मात्मा सेठ था । वह संतों की सेवा भी अच्छी करता था । उसको ठगने के लिये चार ठगों ने साधु भेष बनाया और एक को ग्राम में सेठ के पास भेजा । एक ग्राम के बाहर बकध्यानी बनकर बैठ गया और एक बकध्यानी से कु़छ आगे भजन करनेका ढोंग करके बैठ गया । एक दूर वन में था । उक्त तीनों ने वन वाले के पास ले जाने को ढोंग रचा था ।
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सेठ के पास गया उसने सेठ को कहा - आपके ग्राम के वन में बहुत उच्च कोटि के संत आये हैं, आप दर्शन करना चाहो तो चलो । सेठ संतो में बहुत श्रद्धा रखते थे, चल पडे । ग्राम के बाहर आते ही जो बाहर बैठा ता वह बोला केशो - केशो अर्थात् कैस है दरिद्र तो नहीं हे ? तब सेठ के साथ था उसने कहा - धनुषधारी अर्थात् धनी है, साथ में भी हीरा वाली अंगुठी आदि हैं ।
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उससे आगे जो बैठा था उसने धनुषधारी सुनकर जोर से कहा - वनमाली अर्थात् वन में ले आओ । उन ठगों से भगवान् ने अपने भक्त की रक्षा तो करनी ही थी । सेठ को प्रेरणा दी इससे उसने भी खड़े रह कर जानराय, जानराय, जानराय कहा - यह सुनकर ठग समझ गये कि सेठ ने हमारा षड़यन्त्र जान लिया । ग्राम के पास ही थे और वहां इधर - उधर मानव भी थे । अतः बलात्कार तो कर नहीं सके और भाग गये ।
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तब सेठ भी समझ गया कि यह इन लोगों का षड़यन्त्र ही था । भगवान् ने मेरी रक्षा की उनको कोटि प्रणाम और धन्यवाद हैं । सोई उक्त ७८ की साखी में कहा है - मन निर्मल न हो तो ध्यान धरने से क्या होता है ? ध्यान तो वक भी धरते है किन्तु मच्छी का, वैसे ही ठग ध्यान लगा कर बैठे थे किन्तु धन का ।
(क्रमशः)
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