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*आपै आप प्रकाशिया, निर्मल ज्ञान अनन्त ।*
*क्षीर नीर न्यारा किया, दादू भज भगवंत ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ सारग्राही का अंग)*
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*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)*
*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ*
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*केशव को शिक्षा – ‘दल(साम्प्रदायिकता) अच्छा नहीं’*
एक भक्त- क्या ब्रह्मज्ञान होने के बाद सम्प्रदाय आदि चलाया जा सकता है ?
श्रीरामकृष्ण- केशव सेन से ब्रह्मज्ञान की चर्चा हो रही थी । केशव ने कहा, आगे कहिए । मैंने कहा, और आगे कहने से सम्प्रदाय आदि नहीं रहेगा । इस पर केशव ने कहा, तो फिर रहने दीजिए । (सब हँसे ।) तो भी मैंने कहा, ‘मैं’ और ‘मेरा’ यह कहना अज्ञान है । ‘मैं कर्ता हूँ, यह स्त्री, पुत्र, सम्पत्ति, मान, प्रतिष्ठा – यह सब मेरा है’ यह विचार बिना अज्ञान के नहीं होता । तब केशव ने कहा, महाराज, ‘अहं’ को त्याग देने से तो फिर कुछ रहता ही नहीं । मैंने कहा, केशव, मैं तुमसे पूरा ‘अहं’ त्यागने को नहीं कहता हूँ, तुम ‘कच्चा अहं’ छोड़ दो । ‘मैं कर्ता हूँ, ‘यह स्त्री और पुत्र मेरा है’, ‘मैं गुरु हूँ’ – इस तरह का अभिमान ‘कच्चा अहं’ है – इसी को छोड़ दो । इसे छोड़कर ‘पक्का अहं’ बनाए रखो । ‘मैं ईश्वर का दास हूँ. उनका भक्त हूँ; मैं अकर्ता हूँ और वे ही कर्ता हैं’ – ऐसा सोचते रहो ।
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एक भक्त-क्या ‘पक्का अहं’ सम्प्रदाय बना सकता है ?
श्रीरामकृष्ण- मैंने केशव सेन से कहा, ‘मैं सम्प्रदाय का नेता हूँ, मैंने सम्प्रदाय बनाया है, मैं लोगों को शिक्षा दे रहा हूँ’ – इस तरह का अभिमान ‘कच्चा अहं’ है । किसी मत का प्रचार करना बड़ा कठिन काम है । वह ईश्वर की आज्ञा बिना नहीं हो सकता । ईश्वर का आदेश होना चाहिए । शुकदेव को भागवत की कथा सुनाने के लिए आदेश मिला था । यदि ईश्वर का साक्षात्कार होने के बाद किसी को आदेश मिले और तब यदि वह प्रचार का बीड़ा उठाए – लोगों को शिक्षा दे, तो कोई हानि नहीं । उसका अहं ‘कच्चा अहं’ नहीं, ‘पक्का अहं’ है ।
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“मैंने केशव से कहा था, ‘कच्चा अहं’ छोड़ दो । ‘दास अहं’ ‘भक्त का अहं’ – इसमें कोई दोष नहीं । तुम सम्प्रदाय की चिन्ता कर रहे हो, पर तुम्हारे सम्प्रदाय से लोग अलग होते जा रहे हैं । केशव ने कहा, महाराज, तीन वर्ष हमारे सम्प्रदाय में रहकर फिर दूसरे सम्प्रदाय में चला गया और जाते समय उलटे गालियाँ दे गया । मैंने कहा, तुम लक्षणों का विचार क्यों नहीं करते? क्या चाहे जिसको चेला बना लेने से ही काम हो जाता है !
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“केशव से मैंने और भी कहा था कि तुम आद्याशक्ति को मानो । ब्रह्म और शक्ति अभिन्न हैं – जो ब्रह्म हैं वे ही शक्ति हैं । जब तक ‘मैं देह हूँ’ यह बोध रहता है, तब तक दो अलग प्रतीत होते हैं । कहने के समय दो आ ही जाते हैं । केशव ने काली(शक्ति) को मान लिया था ।
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“एक दिन केशव अपने शिष्यों के साथ आया । मैंने कहा, मैं तुम्हारा लेक्चर सुनूँगा । उसने चाँदनी में बैठकर लेक्चर दिया । फिर घाट पर आकर बहुत-कुछ बातचीत की । मैंने कहा, जो भगवान् हैं वे ही दूसरे रूप में भक्त हैं, फिर वे ही एक दूसरे रूप में भागवत हैं । तुम लोग कहो, भागवत-भक्त-भगवान् । केशव ने और साथ ही भक्तों ने भी कहा, भागवत-भक्त-भगवान् । फिर जब मैंने कहा, गुरु-कृष्ण-वैष्णव, तब केशव ने कहा, महाराज, अभी इतनी दूर बढ़ना ठीक नहीं । लोग मुझे कट्टर कहेंगे ।
(क्रमशः)
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