🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI
*#श्रीदादू०अनुभव०वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग वसँत २३(गायन समय प्रभात ३ से ६ तथा वसँत ॠतु)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
.
३६४. **भजन भेद**। मल्लिका मोद ताल
निर्मल नाम न लीया जाइ,
जाके भाग बड़े सोई फल खाइ ॥टेक॥
मन माया मोह मद माते,
कर्म कठिन ता मांहिं परे ।
विषय विकार मान मन मांहीं,
सकल मनोरथ स्वाद खरे ॥१॥
काम क्रोध ये काल कल्पना,
मैं मैं मेरी अति अहँकार ।
तृष्णा तृप्ति न मानै कबहूं,
सदा कुसंगी पँच विकार ॥२॥
अनेक जोध रहें रखवाले,
दुर्लभ दूर फल अगम अपार ।
जाके भाग बड़े सोई फल पावै,
दादू दाता सिरजनहार ॥३॥
साँसारिक प्राणियों के और सँतों के भजन में भेद रहता है, यह कह रहे हैं - सर्व साधारण प्राणियों से भगवान् का निर्मल नाम - चिन्तन नहीं किया जाता, जिसके महान् भाग्य होते हैं, वही सँत नाम - चिन्तन के आनन्द रूप फल का उपभोग करता है ।
.
प्राणियों के मन, मायिक मोह और धनादि मद से मतवाले हो रहे हैं । प्राणी तो जो निर्दयतापूर्ण कर्म हैं, उनको कर रहे हैं । मन में विषय - विकार, सम्पूर्ण मनोरथ और विषय स्वाद को सत्य मान रहे हैं ।
.
ये जो काल रूप काम, क्रोध, नाना कल्पना, "मैं - मैं और मेरी" इत्यादि उच्चारण करते हुये अति अहँकार कर रहे हैं, इनकी तृष्णा कभी भी तृप्त नहीं होती । पँच विषय - विकारों में फंस कर सदा कुसंगी बन रहे हैं ।
.
क्षमा, वस्तुविचारादि अनेक योद्धा रक्षक होने पर भी, इस कलियुग में अगम अपार प्रभु रूप फल प्राप्त होना कठिन है, अत: वे दूर ही भास रहे हैं । जिसके बड़े भाग्य होते हैं, वही सृष्टिकर्त्ता सब कुछ प्रदाता प्रभु रूप फल सँशय - विपर्यय रहित प्राप्त करता है ।
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें