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*दादू जे तूं समझै तो कहूँ, सांचा एक अलेख ।*
*डाल पान तज मूल गह, क्या दिखलावै भेख ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ भेष का अंग)*
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*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)*
*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ*
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वैष्णव भक्त-महाराज, ईश्वर का चिन्तन भला क्यों करें ?
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परिच्छेद ४७
*ब्रह्मतत्त्व तथा आद्याशक्ति*
(१)
*पण्डित पद्मलोचन । विद्यासागर*
आषाढ़ की कृष्णा तृतीया तिथि है, २२ जुलाई १८८३ ई. । आज रविवार है । भक्त लोग अवसर पाकर श्रीरामकृष्ण के दर्शन के लिए फिर आए हैं । अधर, राखाल और मास्टर कलकत्ते से एक गाड़ी पर दिन के एक-दो बजे दक्षिणेश्वर पहुँचे । श्रीरामकृष्ण भोजन के बाद थोड़ी देर आराम कर चुके हैं । कमरे में मणि मल्लिक आदि भक्त भी बैठे हैं ।
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श्री मणि मल्लिक पुराने ब्राह्मभक्त हैं । उनकी उम्र साथ-पैंसठ वर्ष की है । कुछ दिन हुए वे काशीजी गए थे । आज श्रीरामकृष्ण से मिलने आए हैं और उनसे काशी-दर्शन का वर्णन कर रहे हैं ।
मणि मल्लिक- एक और साधु को देखा । वे कहते हैं कि इन्द्रिय-संयम के बिना कुछ नहीं होगा । सिर्फ ईश्वर की रट लगाने से क्या होगा ?
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श्रीरामकृष्ण- इन लोगों का मत यह है कि पहले साधना चाहिए – शम, दम, तितिक्षा चाहिए । ये निर्वाण के लिए चेष्टा कर रहे हैं । ये वेदान्ती हैं, सदैव विचार करते हैं, ‘ब्रह्म सत्य है और जगत् मिथ्या’ बड़ा कठिन मार्ग है । यदि जगत् मिथ्या हुआ तो तुम भी मिथ्या हुए जो कह रहे हैं वे स्वयं मिथ्या हैं, उनकी बातें भी स्वप्नवत् हैं । बड़ी दूर की बात है ।
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“यह कैसा है जानते हो ? जैसे कपूर जलाने पर कुछ भी शेष नहीं रहता, लकड़ी जलाने पर राख तो बाकी रह जाती है । अन्तिम विचार के बाद समाधि होती है । तब ‘मैं’ ‘तुम’ ‘जगत्’ इन सब का कोई पता ही नहीं रहता ।
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“पद्मलोचन बड़ा ज्ञानी था, परन्तु मैं ‘माँ माँ’ कहकर प्रार्थना करता था, तो भी मुझे खूब मानता था, वह बर्दवानराज का सभापण्डित था । कलकत्ते में आया था – कामारहाटी के पास एक बाग में रहता था । पण्डित को देखने की मेरी इच्छा हुई । मैंने हृदय को यह जानने के लिए भेजा कि पण्डित को अभिमान है या नहीं । सुना कि अभिमान नहीं है । मुझसे उसकी भेंट हुई । वह तो इतना ज्ञानी और पण्डित था, परन्तु मेरे मुँह से रामप्रसाद के गाने सुनकर रो पड़ा । बातें करके ऐसा सुख मुझे कहीं और नहीं मिला उसने मुझसे कहा, ‘भक्तों का संग करने की कामना त्याग दो, नहीं तो तरह तरह के लोग हैं, वे तुमको गिरा देंगे’ ।
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वैष्णवचरण के गुरु उत्सवानन्द से उसने पात्र-व्यवहार करके विचार किया था, मुझसे कहा, ‘आप भी जरा सुनिये’ । एक सभा में विचार हुआ था – शिव बड़े हैं या ब्रह्मा । अन्त में पण्डितों ने पद्मलोचन से पूछा । पद्मलोचन ऐसा सरल था कि उसने कहा, ‘मेरे चौदह पुरखों में से किसी ने न तो शिव को देखा और न ब्रह्मा को ही’ । ‘कामिनी-कांचन का त्याग’ सुनकर एक दिन उसने मुझसे कहा, ‘उन सब का त्याग क्यों कर रहे हो? यह रुपया है, वह मिट्टी है, - यह भेदबुद्धि तो अज्ञान से पैदा होती है’ मैं क्या कह सकता था, बोला, ‘क्या मालुम, पर मुझे रुपया-पैसा आदि रुचता ही नहीं ।
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*विद्यासागर की दया । भीतर सोना छिपा है ।*
“एक पण्डित को बड़ा अभिमान था । वह ईश्वर का रूप नहीं मानता था । परन्तु ईश्वर का कार्य कौन समझे? वे आद्याशक्ति के रूप में उसके सामने प्रकट हुए । पण्डित बड़ी देर तक बेहोश रहा । जरा होश सम्हालने पर लगातार ‘का, का, का’(अर्थात्, काली) की रट लगाता रहा ।
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भक्त- महाराज, आपने विद्यासागर को देखा है ? कैसा देखा ?
श्रीरामकृष्ण- विद्यासागर के पाण्डित्य है, दया है, परन्तु अन्तर्दृष्टि नहीं है । भीतर सोना दबा पड़ा है, यदि इसकी खबर उसे होती तो इतना बाहरी काम जो वह कर रहा है, वह सब घट जाता और अन्त में एकदम त्याग हो जाता । भीतर, हृदय में ईश्वर हैं यह बात जानने पर उन्हीं के ध्यान और चिन्तन में मन लग जाता । किसी किसी को बहुत दिन तक निष्काम कर्म करते करते अन्त में वैराग्य होता है और मन उधर मुड़ जाता है – ईश्वर से लग जाता है ।
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“जैसा काम ईश्वर विद्यासागर कर रहा है वह बहुत अच्छा है । दया बहुत अच्छी है । दया और माया में बड़ा अन्तर है । दया अच्छी है, माया अच्छी नहीं । माया का अर्थ है आत्मीयों से प्रेम – अपनी स्त्री, पुत्र, भाई, बहन, भतीजा, भानजा, माँ, बाप इन्हीं से प्रेम । दया अर्थात् सब प्राणियों से समान प्रेम ।”
(क्रमशः)
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